________________
영성
||* ||
कार
स्पृशामि च चरामि तान् भजामि शुद्धभावतः । बोधिं लब्ध्वा शिवं यामि सुधर्म वा भवच्छिदम् ॥६३॥ ॥ धर्मभावना ||
धर्मश्चिन्तामणिलों के धर्मः कल्पतरुर्महान् । धर्मो निधिः सुसिद्धीनां धर्मसंसारतारकः ॥ ६४॥ धर्मो द्विधा जिनैः प्रोक्तो निश्चयव्यवहारतः । परमार्थी भवेदाद्यो वस्तुस्वभाव मात्रकः ||१५|| श्रमूर्ती निष्क्रियो नित्यो विभिन्नस्तत्त्वतोवा | तन्त्रात्मकः स सिद्धेषु स्यादन्येषु कदापि न ||३६|| दयामूली द्वितीयः स्याद्धर्मः सर्वहितंकरः । लौकिको व्यवहारो वा धर्मश्चारित्रमूलकः ॥६७॥ यो व्यवहारधर्मास्ति स एव लौकिको मतः । तयोर्द्वयोर्न भेदोस्ति जैनेन्द्रे परमागमै ||६८० सक्रियो वृत्तरूपात्मा सर्वसौख प्रदायकः । यो हि जीवान् समुद्धृत्य पापपंक्कादनन्तरम् ॥९६॥ धत्ते मोहपदे नूनं स 'धर्मो व्यवहारभाक। महाश्रताणुभेदेन द्विविधोरित जिनागमे ॥ १०० ॥ साध्यसाधकभेदेन द्विधा धर्मो मतो जिनैः । परमार्थो परिणामोंसे चारोंमें ही अपने अपने आत्माको लगाता हूँ। इसी रत्नत्रयको पाकर मैं मोक्ष प्राप्त करूँगा और संसारको नाश करनेवाले आत्ममय श्रेष्ठ धर्मको धारण करूँगा ॥९२ – ९३ ॥
॥ धर्मभावना ॥
इस संसार में यह दयामयधर्म चिन्तामणि रत्नके समान है अथवा महाकल्पवृक्ष के समान है, यही धर्म समस्त सिद्धियों की निधि है और इसी धर्मको संसारसे पार कर देनेवाला है || १४ || इसी धर्म को भगवान जिनेन्द्रदेवने निश्रय और व्यवहारके मेदसे दो प्रकारका बतलाया है—इनमेंसे पहिला निश्चय धर्म परमार्थरूप है, वस्तु स्वाभावरूप है, अमूर्त हैं, क्रियारहित है, निस्य है, आत्ममय तवसे अमिन है और शुद्ध आत्ममय है । यह निश्चयधर्म सिद्धोंमें ही होता है, अन्य किसी जीवमें नहीं होता ।। ९५-९६ || दूसरा व्यवहार धर्मदयामय है, सबका हित करनेवाला है, लौकिक है, व्यवहार है और चारित्रमय है ||१७|| जो व्यवहार धर्म है, वही लौकिक धर्म है। भगवान जिनेन्द्रदेव के शासन में व्यवहार धर्म और लौकिक धर्ममें कोई मेद नहीं है ||१८|| वह व्यवहार धर्म क्रियारूप है, चारित्ररूप है, और स्वर्ग, मोक्षके समस्त सुखोंको देनेवाला है । जो धर्म इन संसारी जीवको पापरूपी कीचड़से उठाकर मोक्षपद में विराजमान कर दे, उसको व्यवहार धर्म कहते हैं । जैनशास्त्रोंमें अणुव्रत और महाव्रतके मेदसे उसके दो भेद बतलाये हैं- १९९-१०० ॥ अथवा
I
XXX**
भा
॥