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सु० प्र०
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भवेत्साध्यो लौकिकः साधको मतः ॥ १०१ ॥ सर्वेपि लौकिकाचारा ये प्रणीता जिनागमे। गृहस्थानां यतीनां च धर्मशब्दस्य वाचकाः ॥१०२॥ वर्णाश्रमोऽथवा जातिव्यवस्थायात्मको हि सः । पिण्डशुद्धादिको धर्मो मूलरूपों मवो जिनैः ॥ १०३॥ ८ तस्योत्तरप्रभेदास्ते प्रायश्चित्तादयोऽथवा । सोऽपि दशविधो धर्मो रत्नत्रयात्मकोऽथवा ॥ १०४॥ भवान्धौ तारको नूनं कर्मच्छेदकरो मतः। धर्मं विनात्र जीवन प्राप्ता दुःस्वपरम्परा ॥१०५॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सुधर्मं धारयाम्यहम्। व्यामोहदायकं सर्वं मिथ्याधर्मे त्यजाम्यहम्॥१०६ ॥ | मोक्षप्रदं सुधर्म तं भव्याः कुर्वन्तु निर्मलम् । येन सौख्यं भवेन्नित्यमनाकुलमनामयम् ॥ १०७॥
भगवान् जिनेन्द्रदेवने साध्य-साधकके भेदसे उस धर्म के दो भेद बतलाये हैं- परमार्थ धर्म साध्य हैं और लौकिक वा व्यवहार धर्म साधक हैं || १०१ | | जैनधर्ममें जितने लौकिकाचार निरूपण किये गये हैं अथवा गृहस्य और मुनियोंके जो जो धर्म निरूपण किये गये हैं; वर्णाश्रमव्यवस्था, जातिव्यवस्था, पिंड्युद्धि आदि जो कुछ मूलरूप धर्म भगवान् जिनेन्द्रदेवने बतलाया है, वह सब धर्म का स्वरूप समझना चाहिये ||१०२ - १०३॥ प्रायश्चित्तादिक सब उसी धर्मके उत्तरभेद हैं । उसी धर्मके उत्तम क्षमादिक दश भेद हैं, अथवा रत्नत्रय आदि अनेक भेद हैं || १०४ || यही धर्म संसाररूपी समुद्रसे पारकर देनेवाला है और कपको नाश करनेवाला है । इसी धर्मके विना इस जीवने अनेक महादुःखों की परंपरा प्राप्त की है ।। १०५ || इसलिये मैं समस्त प्रयत्न करके इस श्रेष्ठ धर्मको धारण करूँगा और व्यामोह उत्पन्न करनेवाले समस्त मिथ्या मर्तीका त्याग करूँगा ॥ १०६ ॥ भव्यजीवों को मोक्ष प्रदान करनेवाले इस निर्मल श्रेष्ठ धर्म को सदा पालन करते रहना चाहिये, जिससे कि जो संसार, शरीर, धन और भोगोंसे विरक्त हैं, ऐसे महात्माओंको बारह भावनाओं का चितवन कर दिपयोंकी इच्छा छोड़ देनी चाहिये, आत्माको शुद्ध
आकुलतारहित, रोगरहित नित्य सुखकी प्राप्ति हो जाए ॥ १०७ ॥
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