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०प्र० १५८ ॥
भवतनुधनभोगायो विरको महात्मा त्यजतु विषयवाञ्च्छा भावनां भावयित्वा । चरतु स शुभवृत्ते भाविता स्वात्मशुद्धि धरतु स हि सुधर्म जैनदीक्षा सुधृत्या ॥१०८।।
इति सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकारे द्वादशभावना निरूपणो नाम षष्ठोधिकारः ।।
| करनेवाले और भावनाओंसे भरपूर; ऐसे उस भव्यपुरुषको श्रेष्ठ चरित्रके पालन करने में लग जाना चाहिये और जैनदीक्षाको धारणकर सुधर्म वा श्रेष्ठधर्मको धारण करना चाहिये ॥१८॥ इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकारमें बारह भावनाओं का
निरूपण करनेवाला यह छठा अधिकार समाप्त हुआ।