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सु०प्र०
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सप्तमोऽधिकारः॥
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प्रतीशं प्रतदातारं पापसन्तापनाशकम् । बन्दे पद्मप्रभं देवं चारित्रप्रतिपादकम् ॥१॥ इत्थं च भावनोपेतो मठ्यः सम्यक्त्वधारकः। स संसारनिवृस्यर्थ जिनलिंगं समाचरेत् ॥२॥ धारयति स्वचिनेन चाष्टाविंशतिकान् गुणान् । महाप्रतानि पंचैव तेषु मुख्यानि सन्ति च ॥शा हिंसादिपंचपापानां मनोवचनकायकैः। कृतादिकैस्तु यस्त्यागस्तन्महानतमुच्यते
ll त्रसस्थावरजीवान रक्षणं यत्र सर्धतः । दयाईमनसा नित्यं प्रमादरहितेन च ॥शा तदहिंसात्रतं झेयं सर्वसत्वदया- | करम् । श्रेष्ठं सर्वव्रतानां तन्महापुरुषधारितम् क्षा मृषावादस्य यस्त्यागो नवकोटिविशुद्धितः । प्रमादवर्जन तन्त्र प्रोक्त
जो पद्मप्रभदेव व्रतों के स्वामी हैं, क्तोंके देनेवाले हैं, पापोंके संतापको द्र करनेवाले हैं और सम्यक्चारित्रका निरूपण करनेवाले हैं, ऐसे भगवान् पद्मप्रभदेवकी मैं बन्दना करता हूँ ॥१॥ इसप्रकार सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाले | और बारह भावनाओंका चितवन करनेवाले भव्य जीवोंको जन्म-मरणरूप संसारका नाश करनेके लिये जिनलिंग वा
नग्नमुद्रा धारण करना चाहिये।।२॥ ऐसे भव्य जीवों को अपने हृदयसे अहाईस मूल गुण धारण करने चाहिये, उन | अहाईस मल गुणों में मी मनोहर पांच महाप्रत सबसे मुख्य गिने जाते हैं॥३॥ मन, वचन, काय और कृत-कारित | अनुमोदनासे हिंसादिक पांचों पापोंका त्याग करना महावत कहलाता है ॥४॥ जो प्रमादरहित होकर दयासेज भीगे हुये हृदयसे घस और स्थावर जीहोकी सब समयमें रक्षा करना है, उसको अहिंसा महावत कहते हैं। यह अहिंसा महावत समस्त जीर्वोपर दया करनेवाला है, समस्त व्रतोंमें श्रेष्ठ है, महापुरुषोंके द्वारा धारण किया जाता है ॥५-६॥ इसीप्रकार मन, वचन, काय और कृत-कारितानुमोदनाकी शुद्धिपूर्वक अर्थात् नौ प्रकारसे प्रमादरहित