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||३१|| इन्यादिपंचकल्याणैर्जिनेन्द्रस्य सुभावतः । सम्यक्त्वपूर्वकं शीघ्रं भवत्येव शुभास्रवः ॥ ६२॥ पुण्यपापस्य कर्तारौ शुभाशुभौ तदास्रवौ । आस्रवो दुःखदो नित्यं कर्मगन्धस्य कारणम् ||६|| पुण्यपापं द्वयं मुक्त्वा सर्वास्त्रयं विशेषतः । रुन्धामि ध्यानयोगेन जिनागमानुसारतः ||६४|| त्यक्त्वा मिध्यात्वभावं हि कुर्वे योगनिरोधनम् । ध्यानाध्ययन कर्माणि कुर्वे आवहानये ॥६५||
|| संवरभावना ॥
बद्धकपाटके गेहे प्रवेशः स्यात्कदापि न । सुपिहितालबद्वारे न स्यात्कर्मप्रवेशनम् ||१६|| अस्त्रत्रस्य निरोधो यः स हि स्यात्संवरः शुभः । जातु मिध्यादृशां न च ||६|| समितिगुमिधर्माचैट शुद्धः स्याच संवरः । दृकशुद्धनिर्मलैर्भावैर्वा स्यात्कर्मसुरोवकः ||६८ | समतादिशुमैर्भावैश्चारित्रेण प्रतात्मकैः । शुद्धोपयोग कैर्नित्यं संवरः स्याच्छिदः ||६|| धर्मशुक्लादिसद्धयानैः परीषड्जयैस्तथा । सम्यक्त्त्रपूर्णकैः पूजादानाद्यः स्याश्च संवरः ॥७२॥ संवशे वा पंच कल्याणक महोत्सव करने से सदा शुभास्रव ही होता है || ६२ ॥ शुभ और अशुभ आस्रव पुण्य-पापके कारण हैं, शुभावसे पुण्य होता है और अशुभास्रवसे पाप होता है। ये दोनों प्रकारके आस्रव सदा दुःख देनेवाले हैं और कर्मबन्धके कारण हैं ||६३|| अत्र में जिनागमके अनुसार ध्यानके द्वारा पुण्य-पाप दोनों को छोड़कर सब तरहके आस्रवको रोकूंगा ||६४ || अब मैं मिथ्यात्व भावोंका त्यागकर योगका निरोध करूंगा और आस्रवका नाश करनेके लिये ध्यान अध्ययन आदि कार्यों को करूंगा ॥ ६५ ॥
॥ संवरभावना ।।
जिसप्रकार जिस दरवाजेके किवाड़ बन्द हैं. उस दरवाजेसे कोई मीतर नहीं जा सकता, उसीप्रकार आसत्रका द्वार रुक जानेपर फिर कमौका आव नहीं होता ||६६ || तथा जो आवका रुकना है उसीको शुभ संवर कहते हैं । यह संवर सम्यग्दृष्टियोंके ही होता है, मिध्यादृष्टियों के कभी नहीं होता ॥६७॥ यह कर्मों के आ को रोकनेवाला संवर समिति, गुप्ति और धर्मादिकसे होता है; सम्यग्दर्शनकी शुद्धतासे होता है और सम्यग्दनकी शुद्धतासे होनेवाले निर्मल भावोंसे होता है ||६८ || यह मोक्षप्रदान करनेवाला संवर समता आदि शुभ भावोंसे, चारित्रसे, व्रतोंसे और शुद्धोपयोगसे सदा होता रहता है || ६९ ॥ यह संवर धर्मध्यानसे, श्रेष्ठ
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