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दुःखकारणम् ॥५३॥ शरीरं दृश्यते रम्यं पार ननणाणम् । शन्ता गनिन क्रमांसशोसितपूरितम् ॥५४॥ यद्यप्यशुचि रूपं हि तच्छरीरं निसर्गतः । रत्नत्रयेण पूतं स्याद्न्य पूज्यं च योगिभिः ||५|| अशुचिदेहसम्मोह त्यजामि स्वात्मबोधतः । स्वात्मानं निर्मलं शुद्ध ध्यायामि शुचिहेतवे ।।५।।
॥श्रावभावना ।। कायवाङ्मनसां कर्म योगः प्रोक्तो जिनागमे । स एवात्रास्रवो शेयो द्वारः कर्मागमस्य वा ॥७॥ नौकायां च यया छिद्रो जलागमनकारणम् । काम्पादियोगकैद्वारस्तथा स्रवति फर्म तत् ।।५८॥ मोहमिथ्यारवसंभूतैः योगैः स्यादशुभानवः। सुदृकलादिभिर्योगैनित्यं स्याच शुभाननः IIEI पंचामृतैर्जिनेन्द्रस्य स्नपनैः स्याच्छुभानत्रः। गंधविलेपनायैश्च जिनपादाम्बुजोपरि ॥६०॥ प्राणिहिंसावधाथै श्च जीवस्यास्त्यशुभास्रवः। दयादानादिकैः कार्यैः स्यात्सयोत्र शुभानवः चमड़ेसे ढका हुआ यह शरीर बाहरसे अच्छा लगता है, परंतु मीतरसे देखा जाय तो वीर्य मांस रुधिरसे | भरा हुआ है और अत्यन्त मलिन है ॥५४॥ यद्यपि यह शरीर स्वभावसे ही अपवित्र है तथापि रखत्रयसे पवित्र है तथा योगियों के द्वारा भी पूज्य और वन्दनीय है ॥५५॥ इसलिये अब मैं अपने आत्मज्ञानसे अपवित्र शरीरके मोहका त्याग करता हूँ और आत्माको पवित्र करनेके लिये निर्मल शुद्ध आत्मा का ध्यान करता हूँ ॥५६।।
॥ मानवभावना ॥ __ जैन शास्त्रोंमें मन, वचन और कायाकी कियाओंको योग बतलाया है और यह योगही कोंके आनेका | द्वाररूप आस्रव कहलाता है ॥५७॥ जिसप्रकार नावका छिद्र पानीके आनेका कारण है, उसीप्रकार मन, वचन
और कायके योग कर्मोके आनेके कारण हैं ॥५८॥ मोह और मिथ्यात्वसे मिले हुए योगोंसे अशुभ आस्रव होता | है और सम्यग्दर्शन वा सम्यकचारित्ररूप योगोंसे शुमार होता है ॥५९॥ भगवान जिनेन्द्रदेवका पंचामृतामिषेक करनेसे तथा भगवानके चरण कमलोपर मंधका लेप करनेसे सदा शुभास्त्रत्र ही होता है ॥६०॥ जीवोंकी हिंसा करनेसे, उनका वध करनेसे इस जीवको अशुभास्रव होता है; तथा दया धारण करना, दान देना आदि कार्योंसे शुभास्तव होता है ॥६१॥ भगवान् जिनेन्द्रदेवकी सम्यग्दर्शनपूर्वक श्रेष्ठ भावोंसे पूजा करनेसे