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देहावन्यं जिनागमात् । मोहं त्यक्त्वा भजाम्यत्र निर्ममत्वं हि चात्मनः ।।१६।। परद्रव्यादहं चान्यः संबन्धोपि न तस्य मे | || मत्तोऽन्यश्च परं द्रव्यमन्योई परद्रव्यतः ।।४७|| भावयामि हि चात्मानं देहादन्यं हि चिन्मयम् । शाश्वतं निर्मलं शुमजरामरलक्षणम ॥४८॥ निजरूपं प्रपद्यामि त्यक्त्वान्यत्परम्पकम् । जिनागमप्रभाषेन स्वात्मानं भावयाम्यहम् ॥all
॥शृश्चित्वभावना ।। निसर्गमलिनो देहोऽसम्मांसपूतिपूरितः । मलमूत्रादिभिातः कथं स्यच्छचिरत्र सः ||५oll रज.शुक्रादिसंभूतं | कृमिविष्ठामलाविलम् । शरीरमगुचे स्थान विद्यात्मन् वस्तुरूपतः ।।५।। मलबोज मलस्थानं मलद्वारं गलन्मलम् । | मलरूपं हि विद्यात्मन् शरीरं वस्तुभावतः ।।५।। गेम रोमे शरीरेस्मिन् रोगानां संचयो महान् । तिदुर्गंधयुक्तं हि शरीर! आगमके अनुसार आत्माको शरीरसे सर्वथा भिन्न समझकर और मोहका त्यागकर आत्माके निर्ममत्व भावको धारण करूँगा ॥४६॥ मैं परपदार्थोंसे सर्वथा भिन्न हूँ, परपदार्थोंका और मेरा कोई संबन्ध ही नहीं है, परद्रव्य मुझसे सर्वथा भिन्न हैं और मैं परद्रव्योंसे सर्वथा भिन्न हूँ॥४७॥ मेरी आत्मा शरीरसे मिल है, चैतन्यमय है, नित्य है, निर्मल है, शुद्ध है और अजर-अमररूप लक्षणसे सुशोभित है, ऐसे अपने आत्माका मैं चितवन करूँगा ॥४८|अब में भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए आममके प्रभावसे अन्य पररूपको छोड़कर अपने आत्माके स्वरूपको प्राप्त होऊँगा और उसी अपने आत्माका चितवन करूँगा ।॥४९॥
॥ अशुचिस्वभावना ॥ यह शरीर स्वभावसे ही मलिन है, हड्डी मांस चर्वी आदिसे भरा हुआ है और मल-मूत्रादिकसे व्याप्त हो रहा है, ऐसा यह शरीर भला पवित्र कैसे हो सकता है : ॥५०॥ यह भारीर रज वीर्यसे उत्पन्न हुआ है, कीड़े, a विष्टा, मल, मूत्र आदिसे भरा हुआ है और वस्तुस्वरूपसे अपवित्रताका स्थान है, हे आत्मन्! शरीरको तू ऐसा | | समझ ॥५१॥ हे आत्मन ! वह शरीर मलका बीज है, मलका स्थान है, मलका द्वार है और मल झरनेका | स्थान है, तथा मलरूप है, ऐसा तू इस शरीरको समझ ॥५२॥ इस शरीरके रोम रोममें अनेक महारोग भरे हुए हैं, यह शरीर राध-रुधिर आदिकी दुर्गन्धतासे भरा हुआ है और अनेक दुःखोंका कारण है ।।५।।
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