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मा.
श्री४६॥
॥ मन्यत्वभाषना ॥ __ अयमात्मा स्वभावेन शुद्धो बुद्धो निरंजनः । शरीरात्सर्वथा भिन्नो बद्धोऽप्यस्ति हि कर्मणा ॥३६|| वार्दुग्धवत्तयोरैक्यं
जीवकर्मणोः । तनास्ति वस्ततोप्येवं कर्मबन्धोत्र कारणम ॥४०॥ अमर्तः सखसम्पन्नः शानदर्शनलक्षणः। आत्मास्ति पुद्गलादन्यो देहेस्मिन पुद्गलारमके ॥४शा लक्षणभेदनो भित्री दृश्येते जीवपुद्गलौ। प्रत्यक्षतोपि भिनौ तौ खरदभावान् पृथक् पृथक् ॥४२॥ मृत्योः पश्चावेजीवी देहाद्भिन्नः पृथक स्वयम् । स्वसंवेदनतो नित्यं पृथग्देहा. द्विलक्ष्यते ॥४३॥ नात्मानं वेत्ति मृदोयं देहादन्यो विमोहतः । जीवोयं मुञ्छितो नोहात् कथं वेत्त्यथवा ननु ॥४४ा मोहाइहस्त मोइनिग उत्था व मुमति। माहात्म्यं खलु मोहस्य अतमिह देहिनाम् ॥५|| सम्यग्बुध्वा हि पात्मानं |
॥ अम्पस्वभावना ॥ ___ यह जीव स्वभावसे ही शुद्ध है, बुद्ध है, निरंजन है और शरीरसे सर्वथा मिन्न है। तथापि कर्मोंसे संबंद्ध : & हो रहा है ॥३९॥ यद्यपि दूध पानीके समान जीव और कर्म मिले हुये दिखाई दे रहे हैं. परंतु वास्तवमें ऐसा |
नहीं है, ऐसा दिखाई देनेमें केवल कर्मबन्ध ही कारण है ॥४०॥ यह आत्मा पुदलमय शरीरमें रहता हुआ मी | पुद्गलसे सर्वथा मिम है, अमूर्त है, अनन्त सुखी है और ज्ञानदर्शनरूप लक्षणोंसे सुशोमित है ॥४१॥ यद्यपि ।
जीव पुल दोनों मिले हुए हैं तथापि अलग अलग लक्षणोंके मेदसे दोनों ही मित्र हैं प्रत्यक्षसे मी मिन्न | भिन्न जान पड़ते हैं, तथा स्वभावसे भी अलग अलग जाने जाते हैं ॥४२॥ मृत्यु के पीछे यह जीर इस शरीरसे स्वयं भिन्न हो जाता है । तथा 'मैं सुखी, दुःखी वा ज्ञानी हूँ इस प्रकारके स्वसंवेदनसे यह आत्मा शरीरसे सर्वथा भिन्न जान पड़ता ही है ॥४३|| मोहनीय कर्मके उदयसे अज्ञानी हुआ यह आत्मा शरीरसे मित्र आत्माको नहीं जानता है अथवा यों समझना चाहिये कि यह जीव मोहनीय कर्म के उदयसे मूर्छित हो रहा है, इसलिये वह आत्माको शरीरसे भिन्न कैसे जान सकता है ? ॥४४|'मैं शीररूप हूँ' इस प्रकार मानता हुश्रा यह
आत्मा मोहनीय कर्मके उदयसे मोहित हो रहा है, सो ठीक ही है, क्योंकि जीवोंक मोहनीप कर्मका माहात्म्य | अतर्प है, उसमें कोई तर्क वितर्क मी नहीं कर सकता ।।१५|| इसलिये मैं भगवान् जिनेन्द्रदेवके कहे हुए