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॥ संसारभावना ॥ मोहदावानलव्याप्ते संसारे दुर्गमे बने। भ्रमनिरन्तरं जीवो दुःखं सहति दारुणम् ॥३॥ नास्ति तस्कर्म नोकर्म न ग्रहीतमनेकशः । अनन्तजन्मयोगेन भ्राम्यमाणेन देहिना ॥३२॥ तत्क्षेत्रं नास्ति जीवेन पूरितं यन्न जमना । कर्मणा प्रेर्यमाणोत्र जोधोयं भ्रमतेतराम् ।।३३।। चतुर्गत्यात्मके भीमे दुरन्ते भवकूपके। कर्मणा बद्धमानीयं जीवः पतति पापतः ॥३४॥ कृमिभूत्वा नृपो भूत्वा जीवोत्र मोहकर्मणा । धृत्वा नवं नवं रूपं बहुरूपो नटायते ॥३५॥ व्यतीतोनन्तकालोत्र धृत्वा जन्म नवं नबम् । अद्यापि न व्यतीतोसौ संसारो दुर्गमो महान ॥३६॥ धिम् धिग् मां चाथ संसारमनन्तदुःख दुःखितम् । मोहतीचापि पर्यंत मुक्तोसी महि पापतः ॥३७तता मुख्चामि संसार जिनधर्मप्रभावतः । कर्मबन्धं च मुञ्चामि स्वतंत्रश्च भवाम्यहम ॥३८॥
॥ संसारानुप्रेचा ॥ ___ यह संसाररूपी दुर्गम वन मोहरूपी दानानलसे व्याप्त हो रहा है, इसमें परिभ्रमण करता हुआ यह जीव | अनेक प्रकारके दारुण दुःखोंको भोग रहा है ॥३३॥ अनंत जन्मोंको धारणकर परिभ्रमण करते हुए इस जीवने , ऐसा कोई कर्म वा नोकर्म-वर्गणा बाकी नहीं है, जो अनेक बार ग्रहण न की हो ॥३२॥ तीनों लोकोंमें कोई ऐसा क्षेत्र बाकी नहीं है जिसमें इस जीवने जन्म-मरण धारण न किया हो। कर्मके द्वारा प्रेरित | यह जीव सदा परिभ्रमण ही किया करता है |॥३३॥ चारों गतियोंसे भरा हुआ यह संसाररूपी कृत्रा अत्यन्त ही भयानक है, कोसे बंधा हुआ यह जीव पापकर्मके उदयसे इसी संसाररूपी कूआमें पड़ा रहता है ॥३४।। मोहनीय कर्मके उदयसे यह जीव कभी तो कीड़ोंमें जन्म लेता है और कमी राजकुलमें जन्म लेता है, नये गये। अनेक रूप धारणकर यह जीव नटके समान नाचता रहता है||३५||नवीन नवीन शरीरोंको धारण करते हुये इस | जीवको अनंत काल व्यतीत हो गया, तथापि आजतक यह दुर्गम महासंसार पूर्ण नहीं हुआ ।।३६!। इसलिये | इस संसारको भी धिक्कार है और अनंत दुःखोंको सहन करनेवाले मुझको भी धिक्कार है। मोहनीय कर्मके | उदयसे मुझ पापीने आजतक इस संसारको नहीं छोड़ा है ॥३७॥ इसलिये मैं अब इस जिनधर्मके प्रभाव से इस संसारका त्याग करूँगा और कर्मबंधनको छोड़कर स्वतन्त्रता धारण करूँगा ॥३८॥
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