________________
स० प्र०
॥४
॥
प्रभावशयम. शो पलायत । अजरामरमयः स्वात्मा भवति कर्मच्छेदकः ॥२४॥
॥ एकत्वभाषना ॥ अनादिकालतो जीवः एकाको भ्रमितः सदा । नास्य कोपि सहायोऽभूद् विपत्तिप्रचुरे भवे ॥२॥ गच्छत्येको हि मृत्युस जन्मको विधात्यसी। रोगं शोकं भयं जीव एक एव भुनक्ति सः ।।२६॥ देवो हि जायते बैकश्चैकः पतति
नारके। द्वितीयोस्य सहायो न सर्वत्रैवं नवाधिक ॥२७॥ कर्म बध्नाति चैको हि पुत्रमित्रादिमोहतः । तस्माद्दुःखं सह|| त्येको दुःखं कोपि विभक्ति न ||२८॥ एकोहं मे न पुत्राद्याः वहिर्भूता हि ते परे। तेषां मोहो वृथैवात्रात्मानमेकं भजाम्यहम् ॥
२. एक एव हि मे आत्मा सर्वे सन्ति बहिर्भवाः । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्वात्मानं साधयाम्यहम् ॥३०॥ नहीं है, यही समझकर और तत्वों का यथार्थ स्वरूप जानकर सब जीवोंकी रक्षा करनेवाले धर्मको धारण करना चाहिये ।।२३।। इस जिनधर्म के प्रमावसे यह यम शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और यह आत्मा समस्त कर्माको नाश कर अजर अमर ऐसी सिद्धि अवस्थाको प्राप्त हो जाता है ॥२४॥
॥ एकस्वभावना ॥ ___ यह जीव अनादि कालसे अकेला ही परिभ्रमण करता है, अनेक दुःखमय इस संसारमें इसका कोई
सहायक नहीं है ॥२५|| यह जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरणको प्राप्त होता है, तथा रोग, || शोक, भय आदि सबको अकेला ही भोगता है ॥२६|| यह जीव अकेला ही देव होता है और अकेला ही | नरकमें पड़ता है। इस संसाररूपी समुद्रमें सब जगह इसको दुसरा कोई सहायक नहीं है ॥२७॥ पुत्र-मित्रा
| दिकके मोहसे यह जीव अकेला ही कोंका बंधन करता है और उनसे उत्पन्न हुए दुःखोंको अकेला ही 18 भोगता है । जीवोंके दुःखोंको कोई नहीं बाँट सकता ॥२८॥ इस संसारमें मैं अकेला हूँ, पुत्र-मित्रादिक मब
वाद्य और पर है; उनका मोह करना व्यर्थ है, इसलिये मै अब केवल अपने आत्माका ही चितवन करूँगा ।।२९॥ इस संसारमें मेरा केवल मेरा आत्मा ही है, बाकी सब पदार्थ पर हैं, इसलिये मैं सवतरहके प्रयकर अपने | आत्माको ही सिद्ध करूँगा ॥३०॥
NEXCAREERANISAAREENSEXKXXX