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निर्जरा हेतुइँतुश्च कर्मभेदने । मुरिस्य हेटुः स ततोऽहं संवरं भजे ॥७१।।
॥निर्जराभावना ॥ ___ फर्म निर्जरग यत्र निर्ल। म्यान्दारलाहना ! गगा बा जीने कर्म निर्जरा द्विविधा मता ॥७२।। अकामनिर्जरा पात्र सर्वसंसारिणां मता। सत्तपोभिमनीनां तु सकामा निर्जरा शुभा ॥७॥ योगत्रयनिरोधेन शुद्धभावेन योगिनाम् । कम विध्वंसिका सा स्यानिर्जरा मोक्षक्ष शुभा ॥७॥ शुद्धोपयोगभूतेन ध्यानेन स्यास्थिराश्मनाम् । योगिनां क्षीणमोहान निर्जरा कर्ममोचिका ।।५।। सुदृढगाढबद्धानां कर्मणां मूलतोत्र वा । निर्जरा हि भिनत्तिस्म पवितुल्यं हि भूधरान् ॥६॥ | अतो हि मोक्षमूला तां कृत्स्नकर्म विभावकाम् । निर्जरा परमां शुद्धां मजेऽहं शुभभावतः ॥७॥
शुक्लध्यानसे, परिषदोंके जीतनेसे और सम्यग्दर्शनपूर्वक पूजा दान आदि करनेसे होता है ॥७०॥ यह संवर | निर्जराका कारण है, कर्मोंके नाशका कारण है, और मोक्षके विशेष साधनोंका कारण है इसलिये मै अब संवर- | को. ही धारण करूँगा ॥७१॥
निर्जराभाषमा ॥ जहांपर कर्मोकी निर्जरा होती है वह सुख देनेवाली निर्जरा कहलाती है। अथवा जिसके द्वारा कर्म नष्ट | से होते हैं उसको मी निर्जरा कहते हैं। वह निर्जरा दो प्रकार की है-एक अकाम निर्जरा और दूसरी सकाम निर्जरा ।
अकाम निर्जरा समस्त संसारी जीवोंके होती है और सकाम निर्जरा मुनियोंके तपश्चरणके द्वारा होती है ॥७२- 4 ७३।। मुनियोंके तीनों योगोका निरोध करनेसे और शुद्ध परिणामोंसे जो कर्मोको नाश करनेवाली निर्जरा होती है, वह मोक्ष देनेवाली उत्तम निर्जरा कहलाती है।।७। जिनका मोहनीय कर्म नष्ट हो गया है और जिनकी आरमा स्थिर है, ऐसे योगियोंके जो शुद्धोपयोगरूप ध्यानसे निर्जरा होती है, वह कर्मोको नाश करनेवाली | निर्जरा कहलाती है ।।७५॥ जिसप्रकार वचसे पर्वत चूर चूर हो जाते हैं, उसीप्रकार निर्जरासे अत्यन्त दृढ़ और | गाढ बंधे हुए कर्म भी जड़से नष्ट हो जाते हैं ।।७६॥ इसलिये मैं मोक्ष की कारणभूत और समस्त कर्मोका नाश करनेवाली परम शुद्ध निर्जराको मैं अपने श्रेष्ठ भावोंसे धारण करता हूँ॥७७॥