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॥ खोकभावना ।। लोक्यन्ते यत्र जीवाचा पदार्थाश्चेतनेतराः । स लोकः कथ्यते देवैः स्वयंभूरविनश्वरः ||८|| अनादिकालतः सोस्थि झनन्तोप्यन्तवर्जितः । न कृतो न धृतः केन स्वयं सिद्धः सनातनः ॥ ७१ ॥ महावातैस्त्रिभिः सांस्ति वेष्ठितो वाऽचलः स्थिरः । निष्क्रियः स्थानदानाई: जीवादीनामशेषतः ||८०|| सर्वत्र कर्मयोगेन जीवास्तत्र निरंतरम् । जन्ममृत्योः पराधीनाः सन्ति दुःखात्मकाः सदा ||२१|| कृत्स्नकर्मक्षयेव सिद्धिं यास्यन्ति ते ध्रुवम् । जन्ममृत्युजरातीताः स्वतंत्रा दुःखदूरगाः ॥६२॥ || बोधिदुर्लभ भावना ।।
महामिध्यात्वप्रस्तेन जीवेनानादिकालतः । अद्यावधि न संप्राप्तं द्वीन्द्रियत्वं सुदुर्लभम् ॥८३॥ देवाद्यदि त्वया ल
|| लोकभावना ||
जहाँपर जीव अजीव आदि वेतन अचेतन पदार्थ दिखाई देवे, उसको भगवान् जिनेन्द्रदेव लोक कहते हैं। यह लोक स्वयम्भू है, किसीका बनाया हुआ नहीं है ओर न कभी इसका नाश होता है || ७८ ॥ यह लोक अनादिकाल से है और अंतरहित अनंतकाल तक बना रहेगा। यह न तो किसीने बनाया है. न किसीने धारण किया है, यह स्वयंसिद्ध है और सनातन है ||७९ || यह लोक तीन प्रकारकी महावायुसे घिरा हुआ है, अचल है, स्थिर है, क्रियारहित है और जीवादिक समस्त पदार्थोंको स्थान देने योग्य है ॥८०॥ इसी लोकाकाशमें ये सब संसारी जीव कर्मके निमित्तसे जन्म-मृत्युके पराधीन होते हुए और सदा दुःख भोगते हुए निवास कर रहे हैं ॥ ८१ ॥ वे जीव समस्त कर्मोंके क्षय कर लेनेपर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त होते हैं, तथा जन्म, मरण और बुढापा आदिसे रहित होकर सब तरहसे स्वतंत्र हो जाते हैं || ८२ ॥
|| मोधिदुभभावना ||
महामिथ्यात्व कर्मके वशीभूत होनेके कारण यह जीव अनादिकालसे निगोदमें पड़ा हुआ है, इसने आजतक भी कमी दो इंद्रियपर्याय नहीं पाई। वह भी इसके लिये महादुर्लभ हो रही है || ८३ ॥ | यदि कदाचित् इस आत्माको किसी शुभकर्मके उदयसे दो इंद्रियपर्याय मी प्राप्त हो जाय तो तेइंद्रिय, चौइंद्रिय और पंचेन्द्रिय