________________
० प्र०
१२० ॥
S
शत्रुतः । राज्यादुभ्राष्टकलत्रादेः वह पातात्तथान्यथा ॥ १६ ॥ जायते च महापीडा नानादुःखप्रात्र सा 1 निरासार्थ हि तत्पीडां चैकाप्रेन च चिन्तनम् ॥ १७ ॥ तत्पीडाजनकं ध्यानमार्तं दुःखकरं मतम् । तस्मादार्तं सदा त्याज्यं मुक्तीच्छेन हि ||१८|| देवदेवेन्द्रनागेन्द्र नरेन्द्र चक्रवर्तिनाम् । ऐहिकं ह्यक्षजं सौख्यं पदं वा लोकपूजितम् ॥१६॥ लोकेऽत्र परलोके व भिकांम्। तपःप्टेन तस्य फलेन स्वच्च मे यदि ॥ २०॥ तदा मेऽभिमतं सिद्धमित्यादि चाभिकांक्षणम् । तदेकाग्रेण योगेन चिन्तनं सुख लिप्सया ||२१|| ध्यानं तच्च निदानाख्यमतं स्याज्जिननापितम् । अतिदुःखकरं निंद्यमार्त्तध्यानं जिनैर्मतम् ||२२|| एवं चतुविधं पातं दुद्धर्थानं बंधकारकम् । जन्ममृत्युजराकीर्णसंसारस्य च कारणम् ||२३|| आर्तध्यानेन जीवोऽयं संसाराब्धी प्रमज्जति । करोति चास्रवं तीव्र भवबन्धनकारकम् ||२४|| अनादिकालतो जीव भार्तध्यानं तनोति सः । भवो न मुच्यते तेन कर्मबन्धो न हीयते ||२५|| संक्लेशेन च चित्तेन महामोहोदयेन
प्रकारके दुःख देनेवाली महापीडा उत्पन्न हो, उस पीडाको दूर करनेके लिये एकाग्र मनसे बार बार चितवन करना पीडाजनक नामका तीसरा आर्तध्यान कहलाता है, यह आर्तध्यान भी महादुःख देनेवाला है, इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले आत्महितैषी पुरुषों को इस आवेध्यानका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ।।१६ - १८ ॥ इम तपश्चरण के फलसे अथवा चारित्र धारण करने के फलसे मुझे देव, इंद्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र और चक्रवर्तीकेपद प्राप्त हों; इस लोकसंबंधी इंद्रियोंके सुख प्राप्त हों अथवा लोकपूजित पद प्राप्त हों; तभी मेरी इच्छा पूरी हो सकती है । अथवा संसार में जो जो सुंदर पदार्थ हैं, उन सबकी मुझे प्राप्ति हो; इस प्रकारकी इच्छा करना और सुख की इच्छासे एकाग्र चित्तसे बार बार चितवन करना निदान नामका चौथा आध्यान कहलाता है, ऐमा भगवान् जिनेन्द्र देवने कहा है । यह आर्तध्यान अत्यन्त दुःख देनेवाला है और निंद्य है, ऐसा भगवान् जिनेन्द्र देवने बतलाया है ।।१९ २२|| इस प्रकार चारों प्रकारका आर्तध्यान अशुभ ध्यान है, कर्मबंधको करनेवाला है और जन्म, मरण तथा बुढ़ापा आदिसे भरे हुए इस संसारका कारण है ||२३|| इस आर्तध्यान के कारण यह जीव इस संसाररूपी समुद्र में डूब जाता है और संसारका बंधन करनेवाले तीव्र आम्रत्रको करता रहता है ||२४|| यह जीव अनादि कालसे आर्तध्यान करता आया है और इसीलिये इसका संसार नहीं छूटता तथा कर्मबंध कम नहीं होता ||२५|| संक्लेश परिणामोंसे अथवा तीव्र मोहकर्मके उदयसे इस संसार में आर्तध्यान उत्पन्न
I
驻北铁东铁等地发矿
भाटी
॥ १२०