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वा । आध्यानं भवेदन तिर्यक कुगतिकारणम् ॥२६॥ आध्यानेन जीवस्य जागतिः कामगर्दभादिपर्यायस्तेनैव जायते ननु रजा अार्तध्यानेन संतप्तश्चिन्ताकुलितमानसः । जीवो हि लियते तेन सहमानोपि चेदनाम् ॥२१ आधिव्याधिसहस्राणामार्तध्यानं हि कारणम् । चित्तक्लेशकरं विद्धि तद्धि परमदुःखदम् ॥२॥
नकुलसर्पमेषादीनां परस्परयोधनम् । कलहो भ्रातृबन्धूनां ताडनं मारणं तथा ||३०|| यज्ञेहि हिंसनं जीवानां वा हिंसादिकारण । एवं हिंसाप्रयोगेषु हानन्दो यस्य जायते ॥३शारौद्रध्यानं भवेत्तस्य रौद्रभावन कर्मणा। हिंसादिकरकर्माश्रित ध्यानं च मवेदिदम्॥३२। जीवहिंसा हि लोकस्मिन् निंद्या गर्या च पापदा । कूरभावकरा सात्र मानन्दाय च किं भवेत्॥३॥ धर्महेतुकृता हिंसा वानन्दाय कथं भवेत् । रौद्रव्यानी तथाप्यव हिंसायां सुखमश्नुते ॥३४॥ हिंसायास्तदुपायम्य कारणस्य च चिन्तनम् । एकाप्रमनसा तद्धि रौद्रध्यानं भवेदिह ।।३।।
होता है । यह आर्तध्यान तिर्यच् नामकी कुगतिका कारण है ॥२६॥ इस आर्तभ्यानसे जीवकी दुर्गति होती | है; और कुत्ता, गधा आदि नीच पशुओंकी पर्याय इसी आर्तध्यान से मिलती हैं ।।२७॥ इस आर्तध्यानसे संतप्त होकर जिसका मन चिंतासे व्याकुल हो रहा है, ऐसा जीव तीव्र वेदनाको सहता हुआ महादुःखी होता है ॥२८॥ यह आर्तध्यान हजारों आधि-व्याधियोंका कारण है, चित्तको क्लेश उत्पन्न करनेवाला है और | महादुःख उत्पन्न करनेवाला है, ऐसा तू समझ ॥२९॥
न्योला-सर्पका वा भेड़ोंका परस्पर युद्ध देखना, भाई भाइयोंका युद्ध कराना वा ताडन-मारण करना | हिंसादिक कार्योंमें वा यज्ञ आदिमें होनेवाली हिंसामें आनन्द मानना वा और मी हिंसाके प्रयोगोंमें आनंद | मानना रौद्रध्यान कहलाता है, यह रौद्रध्यान रौद्रभावोंसे वा रौद्रकर्मोंसे होता है । तथा यह ध्यान हिंसादिक क्रूर कर्मों के आश्रयसे ही होता है ॥३०-३२।। इस संसारमें यह जीवोंकी हिंमा निन्ध है, गर्म है, पाप उत्पन्न करनेवाली है और क्रूर भावोंको उत्पन्न करनेवाली है । ऐसी हिंसासे मला आनन्द कैसे हो। सकता है ? ।।३३।। फिर भला जो हिंसा धर्मके लिये की गई है, उसमें आनन्द कैसे हो सकता है ? तथापि रौद्रध्यान करनेवाला हिंसामें ही सुख मानता है ॥३४॥ एकाग्रमनसे हिंसा वा हिंसाके उपायोंके कारणोंका चिन्तवन करना इस संसारमें रौद्रध्यान कहलाता है ॥३५॥
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