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सत्यं दुःखदं साक्षाद्वाऽविश्वासविधायकम् । परन दुःखदं चास्ति प्राणी तदपि मोहतः ||३६|| असरये मनुते हर्षमात्मसन्तोषकारकम् । इनि सस्याप्यसत्यस्सः ॥३॥ ध्यानं भवेतद्धि चित्तव्याकुलताकरम् । 'असत्यकार णानां वाऽसत्यस्याश्र विचितनम् ॥ १८ ॥ रौद्र ं तदपि वा ध्यानं दुर्गतेयक मतम् । तस्माद्रौद्रं सदा त्याज्य हितेच्छुकमुमुक्षुणा ||२६|
रतेयकर्म द्दि लोकेरिमन् प्रत्यक्षं दुःखदं मतम् । परलोके हि दुर्गत्यां दुःखं भवति दारुणम् ||४०|| स्वेयकृत्येन चानन्दः कथं खलु भवेदिह । तथापि तत्र चानन्दं मन्यते पापधीः कुधीः ॥४१॥ इति संधार्य चित्तस्मिन् स्वेयकर्म विचिन्तनम् । करोति रुद्रभाषेन चैकाग्रमनसा पुनः ॥४२॥ रौद्रध्यानं भवेतद्धि चातिसंतापदायकम् । तस्माद्रौद्रं सदा त्याज्यं भव्य जीवेन सर्वथा ||४३|| अत्यन्तमूर्द्धया दुष्टचेष्टया हीन कर्मणा । दासीदासादिभृत्यानां मोहतः खलु संग्रहः ॥ ४४ ॥ गृहादिपरवस्तूनां कांक्ष
असत्य वचन मी प्रत्यक्ष दुःख देनेवाले हैं, अविश्वासके कारण हैं और परलोकमें भी दुःख देनेवाले हैं, तथापि ये प्राणी मोहके कारण असत्य में आनन्द मानते हैं और असत्य से बहुत संतुष्ट होते हैं, इस प्रकारके असत्यके आनंद और संतोषको बार बार चिन्तवन करना दूसरा रौद्रध्यान कहलाता है । यह रौद्रध्यान भी चित्तको व्याकुल करनेवाला है । इसीप्रकार असत्यके कारणोंका वा असत्यका बार बार चिन्तन करना भी दुर्गति देनेवाला रौद्रध्यान कहलाता है । इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले आत्महितैषी पुरुषोंको इस रौद्रध्यानका सदाके लिये त्याग कर देना चाहिये || ३६- ३९ ॥ चोरी करना भी इस संसार में प्रत्यक्ष दुःख देनेवाला है और परलोकमें भी इससे दुर्गतियोंमें दारुण दुःख प्राप्त होता है। ऐसी चोरी करना भला आनन्द कैसे उत्पन्न कर सकता है ? तथापि पापरूप दृष्ट बुद्धिको धारण करनेवाला उस धोरीमें भी आनंद मानता है। इसप्रकार आनंदपूर्वक एकाग्र मनसे और रौद्र परि धामोंसे जो इस चोरीका बार बार चितवन करना है, उसको रौद्रध्यान कहते हैं। यह तीसरा रौद्रध्यान मी अत्यन्त संताप उत्पन्न करनेवाला है । इसलिये भव्य जीवों को इस रौद्रध्यानका मी सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ॥४०-४२ ॥ अत्यन्त सेवा दुष्टचेष्टा से अथवा अशुभ कर्मके उदयसे और मोइसे दास दासी आदि सेवा संग्रह करना अथवा रागभावसे घर आदि परवस्तुओं की इच्छा करना, अथवा रागभावसे पुत्र, मित्र, स्त्री आदि
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