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सुप्र I/EE||
प्रसन्नधीः। ध्यानाध्ययनकर्माणि सभ्यसेत्सन्मुमुक्षुकः ॥१७॥ मोहमायादिसलीन विषयादिषु रंजितम् । मनः संसध्य तत्वेषु स्वाध्याय वा नियोजयेत् ॥१८॥ स्खध्यायतत्परो नित्यं यमनियमधारकः । विना क्लेशेन साधुः स करोति ववश मनः ॥१॥ स्वाध्यायभावनायैश्च स्वमनः स्ववशं नयेत् । तद्वशीकरण मंत्रं स्वाध्याय एव निश्चितम् २०|| स्वाध्यायादेव चित्तस्य स्थिरता सुतरां भवेत । तस्माच मुनिभिः प्रोक्तं न न्वाध्यायात्परं तपः ॥२२॥ स्वतंत्रचारिणी तीत्र गतिः चित्तस्य चम्चला | स्वाध्यायेनैव भव्यैः सा सल्यते नात्र संशयः ॥२२॥ स्वाध्यायेन ततः साधुर्मनो हि स्ववशं मयेत् । नान्यः कश्चिदुपायोस्ति मनःसंरोधकारकः ॥२३॥ येषां तु चञ्चलं चित्तं वशं नायाति यत्नतः । स्वाभ्या. येनैव तेषां तु तद्वशं यात्यसंशयम् ॥२४॥ श्रीमजिनेन्द्रदेवश्च मनःसंरोधहेतवे । एक एव उपायः स स्वाध्यायः कथितो. ऽथवा १२था अतिचपजसुचित्तं ध्यानविन करोति , ह्यनदरतसुतीनां पापकक्षां तनोति । रचयतु शुभभावाचित
अध्ययन आदि कार्योंका अभ्यास करना चाहिये ॥१७॥ यह मन मोह का माया आदिमें लीन हो रहा है, तथा विषयों में तल्लीन हो रहा है, ऐसे इस मनको रोककर तत्वोंमें लगाना चाहिये अथवा खाध्यायमें लगाना चाहिये ॥१८॥ जो साधु स्वाध्यायमें सदा लीन रहता है और यम नियमोंको धारण करता है, वह विना किसी क्लेशके मनको वशमें कर लेता है ।।१९।। भव्य जीवोंको स्वाध्यायकी भावनासे ही अपने मनको वशमें करना चाहिये, क्योंकि मनको वशमें करनेके लिये यह स्वाध्याय ही सुनिश्चित मंत्र है ॥२०॥ यह मन स्वाध्यायमें | अपने आप स्थिर हो जाता है । इसीलिये "खाध्यायसे बड़कर अन्य कोई तप नहीं है" इस प्रकार अनेक मुनियोंने उपदेश दिया है ॥२१॥ इन मनकी गति स्वतंत्र है, तीव्र है और चश्चल है ! ऐसे इस मनकी | गतिको भव्य जीव स्वाध्यायसे ही रोकते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है ॥२२॥ इसलिये साधुओंको स्वाध्यायसे ही अपना मन वश करना चाहिये । इसके सिवाय मनको रोकनेवाला अन्य कोई उपाय नहीं है ॥२३॥ जिनका चञ्चल चित्त किसी भी यत्नसे वश नहीं होता है, वह स्वाध्यायसे ही वश हो जाता है, इसमें कोई | संदेह नहीं है ॥२४॥ अथवा यो ममझना चाहिये कि भगवान जिनेन्द्रदेवने मनको रोकनेके लिये एक | स्वाध्याय ही सबसे अच्छा उपाय बतलाया है ॥२५|| अत्यन्त चञ्चल हुआ यह चिच ध्यानमें विघ्न करता है
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