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केन विश्वसिद्धिः प्रजायते ||८|| मनःसंरोधनेनैव परा शुद्धिः प्रजायते । शरीरेन्द्रियशुद्धिस्तु तेनैव च स्वयं भवेत् ||६|| एकैव सा मनःशुद्धिरलं ध्यानादिकर्मसु । यया च प्राप्यते सिद्धिरन्तस्तत्त्वस्य देहिनाम् ||१०|| चित्तशुद्धिः स्थिरीभूता यस्य साधोनिरन्तरा । मनोरथांस्तु सर्वान् स ध्यानेन लभते ध्रुवम् ॥ ११३ ॥ श्रादी कृत्वा मनःशुद्धिं पश्चाद्वयानं समाचरेत् । मनः शुद्धि दिना ध्यानं न भूतो न भविष्यति ||१२|| मनःशुद्धिमकृत्वा यः गंगादौ हि पुनः पुनः । करोति देशुद्धि वा संसाराब्धौ स मज्जति ॥ १३ ॥ मनो रुद्धं न येनात्र ध्यानं सोत्र करोति किम् । मनोरोधबजेनैव तद्ध्यानं स्यात्स्वत. स्वयम् ||१४|| चित्तशुद्धिमनासाध्य ध्यानं कर्तुं य इच्छति । बालुकापीडनं कृत्वा तैलमिच्छति मूढचो. १११५॥ कोटिजन्मान्तरे यद्धि पापं क्षिपति वृत्ततः । स्वल्पेन समयेनात्र क्षिपने चित्तरोधतः ॥ १६॥ पापास्रवं हि संहृद्धय चित्तशुद्धमा
परंपराको रोकनेवाली अत्यन्त दृढ़ ध्यानरूपी संपत्ति एक मनको वश करनेसे ही होती है। तथा इसी मनको करने से समस्त सिद्धियां सिद्ध हो जाती हैं ||८|| मनको वश करनेते आत्माकी उत्कृष्ट शुद्धि हो जाती है और शरीर तथा इंद्रियोंकी शुद्ध भी मनको वश करनेसे स्वयं हो जाती है ||९|| यह एक मनकी शुद्धि ही ध्यानादिक कार्योंके लिये मुख्य साधन है, इसी मनकी शुद्धिसे प्राणियों के अंतरात्मा की सिद्धि होजाती है ||१०|| जिस साधुके मनकी शुद्धि निरंतर स्थिर रहती है, उसके समस्त मनोरथ एक ध्यान से ही सिद्ध हो जाते हैं ॥ १९ ॥ साधुको नबसे पहिले मनकी शुद्धि करनी चाहिये और फिर ध्यान करना चाहिये । क्योंकि मनकी शुद्धि विना ध्यान न कभी हुआ है और न कभी होगा ॥ १२ ॥ जो पुरुष मन की शुद्धि किये बिना गङ्गा आदि नदियोंमें शरीरशुद्धि करते हैं, वे संसाररूपी समुद्र में अवश्य डूबते हैं || १३ || जिसने अपने मनको
में नहीं किया है, वह इस संसारमें ध्यान ही क्यों करता है? क्योंकि मनको वशकर लेनेसे वह ध्यान अपने आप हो जाता है | १४ || जो मनुष्य मनको शुद्ध किये बिना ध्यान करने की इच्छा करता है, वह मूर्ख बालूको पेलकर तेल निकालना चाहता है ||१५|| जो पाप करोड़ों जन्मोंमें चारित्र धारण करनेसे नष्ट होता है, वह पाप मनको वश में कर लेनेसे थोड़े ही समय में नष्ट हो जाता है || १६ || निर्मल बुद्धिको धारण करनेवाले और मोक्ष की इच्छा करनेवाले भव्य जीवोंको अपना मन शुद्धकर पापके आवको रोकना चाहिये और ध्यान
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