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म.प्र.
दशमोऽधिकारः।
RANASAMSKRISHNA
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मनो वशीकृतं येन ध्यानं धृत्वा सुनिर्मलम् । रागद्वेगविहोनं तं पुष्पदन्तं नमाम्याम् ॥१॥ तन्मनोनिग्रहेणैव ध्यानाध्ययनसिद्धयः । पंचाक्षजपपूर्व ताः सिद्धयन्ति शिवदाः पराः ॥२॥ यदा यदो मुनेश्चितं स्वशं यात्यसंशयम् । तदा तदा मुनेयानं भवेदृढतरं शुभम् ॥शा एकमेव मनो यस्य स्वशं यात्यसंशयम् । तस्यैव निश्चलं ध्यानमनायासेन जायते ॥४॥ मनोरोधादवद्धयानं मनोरोधाच संचमः । मनोरोधारक्षयेत्यापं मनो रुध्यात्पुनः पुनः ||५|| तद्धयानं संव सिद्धिः सा स्थिरता सैक तस्वतः । येनाविद्या परित्यज्य मनस्तत्त्वे स्थिरोभवेत् ॥६॥ मनःस्थैर्य विधातव्यं ध्याने तन्नुख्यसाधकम् । तस्मिन् स्थिरीकृढे साक्षात् ध्यानासाद्धर्भवेस्परा ॥७॥ सुद्धा ध्यानसम्पत्तिः कर्मसंतानरोधिका । मनोरोधेन
जिन्होंने निर्मल ध्यान धारणकर अपने मनको वशमें कर लिया है और जो रागद्वेषसे रहित हैं, ऐसे | भगवान पुष्पदन्तको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ सर्वोत्कृष्ट और मोक्षको देनेगली ध्यान अध्ययन की सिद्धियाँ | इंद्रियोंको जीतने और मनको निग्रह करनेसे सिद्ध होती है ||२|| मुनियोंका हृदय जैसे जैसे अपने | वशमें होता जाता है, वैसे ही वैसे उन मुनियों का ध्यान विना किसी संदेह के अत्यन्त दृढ़ और शुभ होता जाता है |
॥३॥ जिस मुनिका एक मनही अपने वशमें हो जाता है, उसी मुनि के बिना संदेहके और विना किसी प्रश्न के 15 निश्चल ध्यान हो जाता है ।।।। मनको वशमें करनेसे ही ध्यान होता है, मनको वामें करनेसे ही संयम होता है और मनको वशमें करनेसे हीपापोंका क्षय होता है। इसलिये इस मनको बार पार वशमें करना चाहिये ।।५।। वास्तवमें ध्यान वही है, सिद्धि वही है और स्थिरता वही है कि जिनसे यह मन अविद्याका त्यागकर तत्चोंमें स्थिर हो जाय ॥६॥ ध्यान करनेवालेको सबसे पहिले अपना मन स्थिर करना चाहिये । क्योंकि मनमा स्थिर करना ध्यानमें मुख्य साधक है। मनके स्थिर हो जानेपर सर्वोत्कृष्ट ध्यान की सिद्धि प्रत्यक्ष हो जाती है । ७१ कर्म की
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