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परतन्त्रः सदा मतः । न हि ध्यातुं समर्थः सः स्वात्मानं सोऽपि मूढधीः || ४५ ॥ यथा यथा मुनिध्यता हृषोकविजयो भवेत । तथा तथा मनोवेगः प्रशाम्यति सुनिश्चतम् ||४३|| तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्त्रावरोधो विभीयताम् । अतरोधेन सद्ध्घानं भवेदिह निराकुलम् ||१७|| अक्षरोधः कुतो येन तेनैव सुखमात्मत्रम् । लब्धं सुसंयमं श्रुत्वा कृत्वा ध्वानं सुनिर्मलम् ||४८|| तीर्थंकरादयः पूर्वं गता ये शिवमन्दिरम्। ते चातविजयेनैव तस्मात्वमपि कुरु ||४६|| मोक्षसिद्धिर्भवेन्नैव विनाज्ञविजयेन हि । तस्मादक्षजयः कार्यः ह्यन्यया नतु संसृतिः ||१०|| तस्मादिन्द्रियरागं च त्यक्त्वा त्वं शुद्ध Patanः । सुधर्म शिवसिद्धयर्थं वर रागादिवर्जितम् ||११|| विरम विरम नित्यं चेन्द्रियाणां व्यवायात् नय नय नय शीघ्रं स्वात्मवश्यं हि चित्तम् । कुरु कुरु कुरु शुद्ध ध्यानमात्मस्वरूपं वर वर दिसु शाश्वतं निर्विकल्पम् ॥५२॥ इति सुधर्मध्यान प्रदीपालंकारे इन्द्रियविजयप्ररूपणो नाम नवमोऽधिकारः ॥
हो सकता है ? ॥४४॥ जो ध्यान करनेवाला इन्द्रियों के वंश होगा, वह मदा परतंत्र ही रहेगा, फिर भला वह मूर्ख अपने आत्माका ध्यान करनेमें कैसे समर्थ हो सकता है ?||४५|| यह ध्यान करनेवाला मुनि जैसे जैसे इंद्रियों को जाता जाता है, वैसे ही वैसे मनका वेग नियमसे अत्यन्त शांत होता जाता है ॥४६॥ इमलिये सब तरह के प्रयत्न करके इंद्रियों का निरोध करना चाहिये । क्योंकि इंद्रियों का निरोध करनेसे ही निगकुल श्रेष्ट ध्यान प्रगट होता है ||४७॥ जो जीव इंद्रियोंका निरोव कर लेता है, वह संयम और निर्मल ध्यान धारणकर आत्मजन्य सुखको अवश्य प्राप्त होगा |॥४८॥ पहले समय में तीर्थंकर आदि जो शिरमहलमें जाकर विराजमान हुए हैं, वे इन्द्रियोंको जीतकर ही वहां पहुँचे हैं, इसलिये हे आत्मन् ! तू भी इन्द्रियों को जीत || ४९|| इन संसार में इन्द्रियों को जीते विना मोक्षकी सिद्धि कभी नहीं हो सकती। इसलिये भव्य जीवों को इंद्रियों की विजय अवश्य करनी चाहिये । अन्यथा इंद्रियविजय के बिना संसारका परिभ्रमण अवश्यम्भावी है १५०|| इसलिये हे आत्मन् ! तू अपने शुद्ध आत्मज्ञानसे इंद्रियोंके गगको छोड़ और मोक्ष प्राप्त करने के लिये रागरहित श्रेष्ठ धर्मको धारण कर ||५१|| हे आत्मन् ! तू इंद्रियों के द्वारा होनेवाले अपने आत्मा के नाशसे अलग हो, दूर हो तथा अपने चित्तको शीघ्र ही आत्माके वशमें कर, आत्मस्वरूप शुद्ध ध्यानको भी शीघ्र धारण कर और निर्विकल्पक नित्य रहनेवाले श्रेष्ठ धर्मको शीघ्र ही धारण कर ।। ५२ ।।
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यह मुनिराज श्रीसुधर्मसागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपालंकार में इन्द्रियविजयको वर्णन करनेवाला नौवां अधिकार समाप्त हुआ।
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