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सु० प्र० ॥८॥
स्वबोधतः । शीघ्रं पश्यसि ध्यानेन खत्मसौख्यमनाकुलम् ||३५|| अध्यात्मजं गतद्वन्द्व शाश्वतं च निराकुलम् । निराधा, सुखं चात्मन् लभसे त्वक्षरोधनः ॥३६॥ अपास्य चाक्षजं सौख्यं वात्मनि स्त्रमनाकुलम् । पश्यात्मन् विमलं सौख्यं ध्यानेन स्वात्मनः स्वयम् ॥३७॥ हृषीकविपयोत्पन्न सुखे लुब्धो यदि त्वकम् । तदात्मन् वद ते ध्यान कयमाध्यात्मिकं भवेत् ॥३८॥
भूतयक्षव्यामोहतो चदि । चित्तं तर्हि कथं ध्यानं कथं वा संयमो भवेत् ॥३६|| अस्ते विद्वलीभूतं । यदि चित्तं मनागपि । तदा लं पापकरडेऽस्मिन् पतितस्त्यत्तसंयमः ॥४०॥ विषयाशाभिभूतानामिन्द्रियाधीनचेतसाम् । | तेषां ध्यानं भवेन्नैव यत्नेनापि समुज्वलम् ॥४ा अजिताक्षो नरो लुब्धो ध्यातु' किस समीइते । तुषाः किं या प्ररोहन्ति सिच्यमानाः सुवारिणा ||२|| निसर्गचपलैरीदि व्याप्तं हि मानसम् । तस्य तरिकं भवेद्ध्यान किंवा काषायनिग्रहः ॥४३।। इन्द्रियैरनिशं यस्य व्यकुलं चलमानसम्। महात्रतं कथं तस्य ध्यानं वा पापरोधकम् ।।४४|| अक्षाणां वशगो ध्याता
देखा ॥३५॥ हे आत्मन् । इद्रियोका निरोध करनेसे तुझे समस्त उपद्रवोंसे रहित, निराकुल, शाश्वत और निरावाध आध्यात्मिक सुख प्राप्त होगा ॥३६।। इसलिये हे आत्मन् ! तू इंद्रियजन्य सुखोंको छोड़कर ध्यानके द्वारा अपनेही आत्मामें निराकुल और निर्मल आत्माके मुखको स्वयं देख ॥३७॥ हे आत्मन् । यदि | तू इद्रियों के विषयोंसे उत्पन्न हुए सुखमें लुभा जायगा तो फिर यतला कि तेरे आध्यात्मिक ध्यान कैसे हो | | सकेगा ॥३८॥ हे आत्मन् ! इन्द्रियोंसे मोहित होकर यदि तेरा चित्त विपयों में व्याकुल हो जायमा तो फिर तुझे कैसे ध्यान हो सकेगा और कैसे संयम हो सकेगा ? ॥३९॥ हे आत्मन् । यदि तेरा मन इन्द्रियोंसे थोड़ासा | भी बिहल हो जायमा तो तेरा संयम छूट जायगा और तू पापकुण्डमें अवश्य गिर पड़ेगा ॥४०॥ जो जीव | विषयोंकी आशाके वशीभूत हैं और जिनका हृदय इन्द्रियोंके आधीन है, उनके यह करनेपर भी निर्मल ध्यान | कभी नहीं हो सकता ॥४१॥ जिसने इंदियोको नहीं जीता है, ऐमा लुब्धक मनुष्य भला ध्यान करनेकी इच्छा कैसे कर सकता है ? क्या भूसी बोकर और अच्छे पानीसे सींचने पर भी उत्पन्न हो सकती है ? कभी नहीं |
॥४२॥ ये इन्द्रियो स्वभावसे ही चंचल हैं, यदि इन चंचल इन्द्रियोंसे मन व्याप्त हो रहा है तो क्या उसके | | ध्यान हो सकता है ? अथवा कषायोंका निग्रह हो सकता है ? कभी नहीं ॥४३॥ जिस मनुष्यका चंचल मन इन्द्रियोंसे सदा व्याकुल रहता है, उसको महावत कैसे हो सकता है ? तथा पापोंको रोकनेवाला ध्यान कैसे