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को मुत्पति सचेतनः ॥ दीर्घसंसारबीजं हि विषवदुःखदायकम् । नानोद्रेककरं सौन्यमक्षजं विद्धि तरखतः ॥२०॥ नानादुःखकर तीन शान्त्यमृतपरामुखम् । भयैराकुलित नित्यं सौख्यं विद्धि तदक्षजम् ॥२८॥ आधिव्याधिकरं नित्यं दुःखसंतापदायकम् । संसारभ्रमणस्यैव कारणं सक्षजं सुखम् ॥२॥ बाप्राप्त मात्ररम्येऽस्मिन्नक्षजे दुःखदे सुखे । भयसंतापसंमिचे को मोहः स्वात्मदिनाम् ॥३०॥ मधुलिप्सासिधारावकिपाकवत्तक्षजम । श्रास्वादसे किमर्थ स्वमात्मन् सौख्यं भयावहम् ॥३१॥ त्वां वंचितं प्रवृत्तानीन्द्रियाणि रम्यभावतः। पातयित्वा भवाब्धौ त्वां दुःखं दास्यन्ति तश्वतः ॥३२॥ अक्षसौख्ये हि राग वा कुरु मा तत्वबोधतः । स्वात्मनः कुरु सयानं लमसे सौख्यमात्मजम् ॥३॥ इन्द्रियोट्रेकमारुध्य स्वमनः स्ववर्श मय । पश्यात्मनात्मनः सौख्यं स्वस्मिन ध्यानेन संततम् ||३४|| विषयेभ्यो निवर्तन्वे यदाज्ञारण
सुख वास्तवमें दीर्घ-संसारके कारण हैं, निगरले समान दुःखदायक है और अनेक प्रकारकी उद्रेकताको उत्पम करनेवाले हैं ऐसा तू समझ ॥२७॥ ये इन्द्रियजन्य सुख अनेक प्रकारके दुःख देनेवाले हैं, अत्यन्त तीव्र १ शांतिरूपी अमृतको नष्ट करनेवाले हैं और भयसे सदा भरपूर रहते हैं। हे आत्मन् ! तू ऐसा समझ ॥२८॥ ये इंद्रियजन्य सुख अनेक प्रकारकी आधि-व्याधियों को उत्पन्न करनेवाले हैं, सदा दुःख और संतापको देनेवाले | | है और संसारपरिभ्रमणके कारण हैं । ॥२९॥ इन्द्रियजन्य सुख सेवन करते समय मनोहर जान पड़ते हैं, परंतु वास्तवमें दुःख देनेवाले हैं तथा भय और संतापसे भरपूर हैं; भला ऐसे इन इन्द्रियजन्य सुखोंमें आत्माके | स्वरूपको जाननेवाला जीव कैसे मोहित हो सकता है ? ॥३०॥ हे आत्मन् ! ये इन्द्रियजन्य सुख शहत लपेटी | तलवारकी धाराके समान अथवा किंपाकफलके समान अंतमें दुःख देनेवाले हैं तथा अत्यन्त मयानक हैं, ऐसे | इन सुखोंका आखादन तू क्यों करता है ? ॥३१॥ ये इंद्रियां अपनी मनोहरता धारणकर तुझे ठगनेके लिये प्रास हुई हैं, इसलिये तुझे इस संसाररूपी समुद्रमें गिरकर वास्तवमें महादुःख देंगी ॥३२॥ इसलिये हे
आत्मन् ! तु आत्मज्ञानको धारण कर, इन इंद्रियजन्य सुखोंमें राग मत कर तथा आत्माका श्रेष्ठ ध्यान कर,
जिससे कि तुझे आत्मसुखकी प्राप्ति हो ॥३३॥ हे आत्मन् ! तू इंद्रियोंके उडेकको रोककर अपने मनको fe अपने वश कर । तथा ध्यानके द्वारा तू अपनेही आत्मामें अपने आत्माके सुखको देख ॥३४॥ जब ये इन्द्रियां |
आत्मज्ञानके द्वारा अपने विषयोंसे हट जायंगी, तभी तुझे ध्यानके द्वारा आकुलतारहित आत्मसुख दिखाई
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