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स०प्र०
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योऽक्षशृङ्खलया थद्धो बहिरत्यन्तरम्यया। संसारशृङ्खलायां सः बद्धो दृढतरो ननु ॥१८॥ यः सुतीक्ष्णतरैङ्गिरक्षजन्यः | दुरन्तकैः । विद्धः सोऽत्र प्रविद्धोस्ति प्रशस्ते पुण्यकर्मणि ॥१॥ कामक्रोधभयाश्चिन्ताकलही मत्सरादयः । वंचिनरहस्य | जीवस्य जायन्ते दुर्गुणा अहो ॥२०॥ यावत्सन्ति कुकर्माणि पापबन्धकराणि च । तान्यज्ञैश्च महादुष्टैः संप्राप्यन्ते जनस्य नु ॥२१॥ सर्वपापस्य मूलानि भवबन्धकराणि च । इन्द्रियाणि विज्ञानीहि रे आत्मन् त्वं हि तत्त्वदः ॥२२॥ व्यामोहतोऽक्षजे सौख्यऽध्यात्मन् त्वं यदि धावांस भावयति सतः पाती भवाब्धौ ते सुनिश्चितम् ।।२शा व्यामोइतस्तथापि | त्वमात्मनिन्द्रियजे सुखे। भूयोऽप्यात्मसुखं मन्वा रमसे हाक्षवंचितः ॥२४॥ दुःस्वमेव विजानीहि हे पात्मनक्षजं सुखम् ।
आध्यात्मिकं सुखं विद्धि वाक्षातीतं स्वभावजम् ।।२४ा आकुले नश्वरे पापे व शान्ते दुःखपूरिते। दुःखदे सक्षजे सौख्य ही बैंसे राग और द्वेष स्वयं बढ़ते जाते हैं ॥१७॥ माहरसे अत्यन्त मनोहर दिखनेवाली इन इन्द्रियोंकी | सांकलसे जो बँध गये हैं, वे संसारकी सांकलसे मी मजदुतीके साथ बंध गये हैं; ऐसा समझना चाहिये ॥१८॥ | जिनका अन्त दुःखमय है, ऐसे इंद्रियोंसे उत्पन्न हुए तीक्ष्ण बाणोंसे जो जर्जरित हो चुके हैं; उनको प्रशंसनीय पुण्य कर्मों में भी जर्जरित हुआ ही समझ लेना चाहिये अर्थात् फिर उससे कोई पुण्य कार्य नहीं हो सकता ॥१९॥ जो जीव इन्द्रियों के द्वारा जीता जाता है, उसे काम, क्रोध, भय, चिंता, कलह और मत्सर आदि अनेक दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं ॥२०॥ इस संसारमें पापगन्ध करनेवाले जितने कुकर्म हैं, वे सब जीवोंको महादुष्ट इन इन्द्रियोंसे ही उत्पन्न होते हैं ॥२१॥ हे आत्मन् ! तू इन इन्द्रियों को समस्त पापोंका मूल और यथार्थमें संसारबंधका कारण समझ पा२२॥ हे आत्मन् ! यदि तू इन्द्रियों में मोहित होकर इन्द्रियजन्य सुखोंमें दौड़ लगावेगा, तो यह निश्चय है कि तू इस संसाररूपी समुद्र में अवश्य पड़ेगा ।।२३|| हे आत्मन् ! इतना समझने पर मी इंद्रियोंसे ठगा हुआ तू व्यामोहके कारण इंद्रियजन्य सुखोंमें आत्मसुख मानकर लीन होगा ॥२४॥ परंतु हे आत्मन् ! तू इन इंद्रियजन्य सुखोंको दुःखरूप ही समझ । जो सुख इंद्रियोंसे रहित है और आत्माके खभावसे उत्पन्न हुआ है, उसीको तु आध्यात्मिक सुम्ब समझ ॥२५|| ये इन्द्रियजन्य सुख आकृलवारूप हैं सदा नाशमान हैं, शांतिसे दूर हैं, दुःखोंसे भरपूर हैं और दुःख देनेवाले हैं, ऐसे इन इंद्रियजन्य सुखोंमें चेतन अवस्थाको धारण करनेवाला यह जीव मला कैसे मोहित हो सकता है ? ॥२६।। हे आत्मन् ! ये इन्द्रियजन्य