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सु० प्र० 1152 11
कृत्वा शिवसिद्धिं विलोकय ॥ ७॥ पंचपापं निराकतु मनीषाका यशुद्धिभिः । निजात्मनः कुरु ध्यानं शिवसिद्धिं विलोकय ||८|| अक्षोद्वेषाद्धि जायन्ते पंच पापानि भूतले । आदावेव प्रवर्तन्ते अक्षाणि पापकर्मणि ॥६॥ कीकायेवमुह्यन्ति वाद विषयवाच्छया । तस्मात्पापं प्रजायेत ततीत्याचारकं महत् ||१०|| अजिताक्षः करोत्यात्मा विषयाक्रांतचेतसा । हिंसादीनि घोराणि पापानि सततं ध्रुवम् ॥११॥ इन्द्रियैविजितो जीदो प्रमाद्यति प्रमूर्च्छति । विषयं कांतमाणो हि संसारे हित स्वयम् ||१२|| इन्द्रियाणां सहायेन विषयेषु गतं मनः को वा वारयितु ं शक्तः काम सैन्यं सुयत्नतः ॥ १३॥ अक्षाणां विषयाatit जीवान हिंसति निर्भयः । असत्यं वक्ति निःशंकं स्तेयं चरति हर्षतः ||१४|| अक्षगोचरसिद्धयर्थं संगमर्जवि मोहतः । मण्डनं कलहं कृत्वा पापानि संचिनोत्यसौ ||१५|| अक्षार्थमुख सिद्धयर्थमनीतिं कुरुते तथा । स्वार्थे परायणो भूत्वः जनः पापं वितन्वते ||१६|| यथा यथा हृषीकाणां मदस्तापश्च वर्द्धते । तथा तथा च वर्द्धते रागद्वेषौ स्वतः स्त्रयम् ॥१७॥ ॥
निग्रहकर मोक्षकी सिद्धिको प्राप्त हो ||७|| पांचों पापको दूर करनेके लिये मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक अपने आत्माका ध्यान कर और मोक्षकी सिद्धिको प्राप्त हो ||८|| इस संसार में इंद्रियोंके उद्रेक से ही पांचों पाप उत्पन्न होते है, सबसे पहले ये इंद्रियां पाप का ही अवृत्त होती हैं ||२|| सबसे पहले विषयोंकी इच्छासे इन्द्रियां मोहित होती हैं। फिर उनसे पाप उत्पन्न होता है और फिर पापसे अनेक महा अत्याचार होते हैं ॥१०॥ जो आत्मा अपनी इन्द्रियोंको जीत नहीं सकता, उसका हृदय विषयोंसे आक्रांत हो जाता है और फिर वह सदा हिंसादिक घोर पाप करता रहता है ||११|| जो जीव इंद्रियोंसे जीता जाता है इंद्रियोंके वश हो जाता है, वह प्रमाद करता है, मूच्छित होता है और विषयोंकी आकांक्षा करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है || १२ || इन्द्रियों की सहायता से विषयोंमें प्राप्त हुए और कामको सहायता पहुँचानेवाले इस मनको प्रयत्न करनेपर भी कौन रोक सकता है ? ||१३|| जो जीव इन्द्रियोंके चिपयोंके आधीन है, वह निर्भय होकर जीवोंकी हिंसा करता है, निःशंक होकर झूठ बोलता है और हर्षपूर्वक चोरी करता है || १४ || इंद्रियों के विषयोंको सिद्ध करनेके लिये वह मोहित होकर परिग्रहों का संग्रह करता है और कलह वा झगड़े कर पापों का संग्रह करता है || १५ || इंद्रियों के विषय-सुखकी सिद्धिके लिये यह जीव अनेक अनीतियोंको करता है, तथा स्वार्थमें तत्पर होकर अनेक पाप करता है ||१६|| इंद्रियों का मद और संताप जैसे जैसे मढ़वा जाता है, वैसे
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