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नवमोऽधिकारः॥
86 तं पंचाक्षविजेतारं पंचसमितिपालकम् । वीतरागमहं वन्दे चन्द्रप्रभ जगद्गुरुम् ॥श पंच हिंसादिपापानि महा. दुःखकराणि च। त्यक्त्वा, पंच ब्रतान्याशु धार्यतां शिवसिद्धये ॥ पंचपापं निराकतु पंचसमितिमाचर । मनोहनिप्रद कृत्वा शिवसिद्धिं विलोकय ||३|| पंचपापं निराकतुं' षडावश्यकमाघर । येन साभ्यामृतं लब्ध्वा शिषसिद्धिर्भवेत्तव ४पंचपापं निराकतु समतां धर भावतः। प्राशावैतरणी तीत्वा शिवसिद्धि विलोकय ॥१॥ पंचपापं निराक पंचचारित्रमाचर । जित्या सर्वजगद्वन्द्व शिवसिद्धिं विलोक्य ॥६॥ करोतु दशधा धर्म पंचपापविहानये । कषायनिम
जो पांचों इन्द्रियोंको जीतनेवाले हैं, पांचों समितियों को पालन करनेवाले हैं तथा जो वीतराग और | जगद्गुरु हैं; ऐसे भगवान् चन्द्रप्रमको में नमस्कार करता हूँ ॥१॥ हिंसादिक पांचों महापाप महादुःख उत्पन्न करनेवाले हैं, इसलिये इनको छोड़कर मोक्ष प्राप्त करनेके लिये पांचों महावतोंको धारण करना चाहिये
॥२॥ हे आत्मन् ! पांचों पापोंको दूर करनेके लिये पांचों समितियोंका पालन कर, तथा मन और इन्द्रियोंका | निग्रहकर मोक्षकी सिद्धिको प्राप्त हो ॥३॥ पांचों पापोंको दूर करनेके लिये छहों आवश्यकोंका पालन कर, | जिससे कि समतारूप अमृतको पाकर तुझे मोक्षकी सिद्धि प्राप्त हो ॥४॥ पांचों पापोंको दूर करने के लिये मावपूर्वक समताको धारण कर और आशारूपी वैतरणी नदीको पारकर मोक्षकी सिद्धिको प्राप्त हो ॥५|पांचों पापों
को दूर करनेकेलिये पांच प्रकार के चारित्रको धारण कर और संसारके समस्त उपद्रवोंको जीतकर मोक्षकी | सिद्धिको प्राप्त हो ॥६॥ पांचों पापोंको दूर करनेके लिये दश प्रकारके धर्मको धारण कर और समस्त कषायोंको
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