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सु० प्र०
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निराबाधं ध्याता योगी तदैव सः ॥८२॥ यदाऽहिंसामयो भात्रो जायते स्वात्मतस्तदा । टम्पूतं निर्मलं ध्यानं भवेरकर्मविदारकम् ॥८३॥ त्वमहिंसामयं धर्मं तस्मादात्मन् गृहाण तम् । यत्प्रभावेन शीघ्रं त्वं मोहसौख्यं हि लप्स्यसे || ४ || जिनवरमवचिह्न विश्वलोके प्रसिद्ध सकलभुषनमान्यं सर्वसत्वानुकम्पम् भजतु भजतु शीघ्र विश्वकल्याण बोर्ज सकलसुखनिधानं त्वं साधम् ॥८५॥
इति सुधर्म ध्यान दीपालंकारे अहिंसाधर्मवर्णनो नाम सप्तमोऽधिकारः ॥
आत्मा अहिंसाधर्ममय अपने शुद्ध
भावोंमें बिना किसी बाधा के लीन हो
जाती है, तब यह आत्मा ध्यान करनेवाला योगी कहा जाता है ||८२|| जब इस आत्माके अहिंसामय भाव उत्पन्न हो जाते हैं, तभी इसके सम्यग्दर्शनसे पवित्र, निर्मल और कमोंको नाश करनेवाला ध्यान प्रगट होता है || ८३|| इसलिये हे आत्मन् तू अब उस अहिंसामय धर्मको स्वीकार कर, जिसके प्रभावसे तुझे शीघ्र | ||८४|| यह अहिंसामय धर्म भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए मतका चिह्न हैं, समस्त संसार में प्रसिद्ध है, तीनों लोकोंके द्वारा मान्य है, समस्त जीवोंपर दया धारण करनेरूप हैं, समस्त कल्याणों का कारण है और समस्त सुखका निधान है। हे आत्मन् ! ऐसे अहिंसामय श्रेष्ठ धर्मको तू धारण कर, धारण कर ॥८५॥
मोक्ष सुख की प्राप्ति हो जाय
इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकार में अहिंसा धर्मको वर्णन करनेवाला यह सातवां अधिकार समाप्त हुआ ।
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