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सु०प्र०
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यदि ते प्राणघातेन वेदना जायते परा । परेषां प्राणघातेन घेदना जायते तथा ॥७२॥ यद्यात्मन् वे सुखं चेष्टमन्येषामपि तत्कुछ । यदि दुःखमनिष्टं ते परेषामपि मा कुरु ॥ मरणं केऽपि नेसन्ति सबै चेच्छन्ति जीवितम् । येनोपायेने सर्वेषां जीवनं स्याच्च तत्कुरु ॥७४।। रक्ष रक्ष प्रयत्नेन प्रमादरहितेन च । जीवमान दयाबुद्धया ज्ञात्वात्मसदशं परम् ।।७।। सारं हि सर्वशास्त्राणां रहस्यं सर्ववेदिनाम् । अहिंसालक्षणो धर्मः हिंसा पापस्य लक्षणम् ॥७३॥ अहिंसेव शिर्ष सूते हिंसा दुर्गप्तिदायिनी । श्रहिंसैव परो धर्मः हिंसाधर्मलक्षणम् ॥७७अहिंसैव समाधीनां राजमार्गोंतिनिर्मलः । येन संप्राप्यते शीघ्र शिवसौख्यमकण्टकम् ॥७८ दयाद्र' बन्धुभावेन चेतो जीवस्य यस्य हि। जीवन रक्षति यो नित्यमात्मवत्सोऽस्ति धार्मिकः। ||७|| यथा यथा च्या चित्ते बद्ध ते बनधुभावतः । तथा तथा हि सम्यक्त्वं वर्तते सर्वजन्तुषु ।।८०|| स्यादहिसामयं चित्तं रागद्वेषविवर्जितम् । यदा सदा समाप्नोति जीपः साम्यामृतं शुभम् दशा पदारमा शुद्धभावेष्वहिंसाधर्ममयेषु षा । संतिष्ठते
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दूसरोंके प्राणोंका धात होनेपर मरोंको भी दुःख ही होता है ॥७२॥ हे आत्मन् । यदि तू सुख चाहता है तो | दसरों को भी सुख पहुँचा। यदि दाखका होना तझे अनिष्ट है तो किसी दसरेको मी दुःख मत दे ॥७३॥ इस संसारमें मरना कोई नहीं चाहता, सब जीवित ही रहना चाहते हैं । इसलिये जिस उपायसे सब जीवोंका जीवन मना रहे, ऐसा उपाय तू सदा कर ॥७४॥ हे आत्मन् ! तू समस्त जीवोंको अपने आत्माके ही समान समझकर दयाबुद्धिसे प्रयत्नपूर्वक और प्रमादरहित होकर समस्त जीरोंकी रक्षा कर ।।७५॥ धर्मका लक्षण अहिंसा ही है और हिंसा पापका लक्षण है, यही समस्त शास्त्रोंका सार है और समस्त ज्ञानियोंका यही रहस्य है ॥७६॥ अहिंसासे मोक्षकी प्राप्ति होती है और हिंसासे दुर्गतिकी प्राप्ति होती है । अहिंसा परमधर्म है और | हिंसा अधर्मका लक्षण है ॥७७॥ यह अहिंसा ही समाधियोंका निर्मल राजमार्ग है और इसी अहिंसासे कण्टकरहित मोक्षका सुख बहुत शीघ्र प्रास हो जाता है ॥७८॥ जिसका हृदय भाईपने प्रेमसे समस्त जीवोंमें दया धारण करता है और जो अपनी आत्माके समान समस्त जीवोंकी सदा रक्षा किया करता है, उसीको | धार्मिक पुरुष समझना चाहिये ॥७९॥ जीवोंके हृदयमें बन्धुताके प्रेमसे जैसे जैसे दया बड़ती जाती है, वैसे
वैसे ही समस्त जीवोंमें समताभाव पड़ते जाते हैं ।।८०॥ जब इस जीवका हृदय राग-द्वेषसे रहित होकर | अहिंसामय हो जाता है, तब यह जीव अत्यन्त शुभ ऐसे समतारूप अमृतको प्राप्त हो जाता है ।।८१॥ जर यह