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सर्वं त्यक्त्वा सुभावतः । कुर्वहिंसामयं धर्ममात्मन त्वं शिवसाधकम् ||१३|| धर्मभावनयोपेता हिंसा धर्मोस्ति यन्मते । पुष्यं भवति हिंसातस्तमिध्यात्वं जिनैर्मतम् ||३४|| तस्माद्धि, स्वात्मरक्षार्थं कुरु यत्नं विशेषवः । स्वात्मनोऽहिंसनं यत्र स्वत्मरक्षा मता हि सा ||६५|| मैत्री त्वं कुरु जीवेषु मा हिंस्याज्जन्तुमात्रकम् । जीवा आत्मसमाः प्रोक्ता यतो श्रीमजिनेश्वरेः ॥ ६६ ॥ यच्छ यच्छाभयं चात्मन् सर्वभूतेषु सर्वतः । यदात्मसदृशं विद्धि लोके भूतकदम्बकम् || ६ || परस्य येन कार्येणानिष्टं ते जायते यदि । श्रात्मन् मा कुरु तत्कार्य परस्मै दुष्टभावतः ||६८ || यथात्मन ते प्रियाः प्राणास्तथैव सर्वप्राणिनाम् । तस्मान्माकुरुदुर्बुद्धधा परमाणविहिंसनम् ||६६॥ अभीष्टास्ते यथा प्राणास्त्वमात्मन तान् सुरक्षसि । अभीष्टाः सर्वभूतानां रक्षन्वि ते तथैव तान् १७० ॥ येन भावेन ते हिंसा स्यादात्मन् पीड्यतेऽयया । त्वं च मा कुरु तद्भावं परस्मै दुष्टचेष्टा ॥ ७१ ॥
इसलिये हे आत्मन् ! तू अपने श्रेष्ठ परिणामोंसे हिंसामय समस्त धर्मों वा कार्योंका त्याग कर और मोक्ष देनेवाले अहिंसामय धर्मको स्वीकार कर ॥६३॥ जिस मतमें धर्म की भावनासे की हुई हिंसाको धर्म माना जाता है और हिंसा से पुण्यकी प्राप्ति मानी जाती है, उसको भगवान जिनेन्द्रदेव मिध्यात्व कहते हैं ||६४ || इसलिये हे आत्मन् ! तू अपने आत्माकी रक्षा करनेके लिये विशेष प्रयत्न कर। जहांपर अपने आत्माकी हिंसा नहीं की जाती, उसीको अपने आत्माकी रक्षा कहते हैं ||६५ || हे भव्य ! तू समस्त जीवों में मित्रता धारण कर और किसी भी जीवकी हिंसा मत कर। क्योंकि भगवान जिनेन्द्रदेवने समस्त जीव अपने ही समान बतलाये हैं। ॥६६॥ हे आत्मन् ! तू समस्त जीवोंको अभयदान दे। क्योंकि संसार में जितने जीव हैं, वे सब अपने ही आत्मा के समान हैं ||६७॥ हे आत्मन् ! दूसरेके जिस कार्य से तेरा अनिष्ट होता हो, उस कार्यको तू अपने बुरे परिणामोंसे दूसरेके लिये कमी मत कर ॥ ६८ ॥ हे आत्मन् ! जिसप्रकार तेरे प्राण तुझे प्रिय हैं, उसीप्रकार समस्त प्राणियों को अपने अपने प्राण प्रिय हैं। इसलिये हे आत्मन् ! दुर्बुद्धि धारणकर तू परप्राणोंकी हिंसा कमी मत कर ॥ ६९ ॥ हे आत्मन् ! जिसप्रकार तेरे प्राण तुझे प्रिय हैं और तू उनकी रक्षा करता है. उसीप्रकार समस्त प्राणियोंको अपने अपने प्राण प्रिय हैं और वे सब अपने अपने प्राणोंकी रक्षा करते हैं ॥ ७० ॥ हे आत्मन् ! जिन परिणार्मोसे तेरी हिंसा होती है अथवा तुझे पीड़ा पहुँचती है, उन परिणामोंको तू दुष्ट भावोंसे दूसरोंके लिये कमी मत कर ॥७१॥ जिसप्रकार तेरे प्राणोंका घात होनेपर तुझे दुःख होता है, उसीप्रकार