________________
सु०प्र०
HRI एव हि । न मनाग्यत्र हिंसाऽस्ति हिंसोद्देश्यो न वा कचित् ॥५४॥ शुभाचारः स एवास्ति यत्र हिंसानिवर्तनम् । अत्यल्पा
मुलाहिंसापि शुभावात्य पारि ई न वृत्तं स्यायन हिंसा कदापि न । वृत्ताभावे मदा जैन हिंसा लेशमाअतः ।।५६।। यत्र हिंसा विचारोन सद्विचारल एव हि एका हिंसैव लोकेऽस्मिन् विचारस्यास्ति थातिका ५७॥ हिंसा धर्मे प्रतीतिर्न तच्छष्ठं दर्शनं मतम् । शुद्धचैतन्यभावे हि हिंसायाः किं प्रयोजनम् ॥५८।। यत्र स्थात्स्वात्मभावाना हानच. रणात्मनाम् । विघातः शुद्धरूपाणां हिंला सा बोधिधातिका ॥५६॥ ध्यानं तपो यमो दान्तिः समाधिर्निग्रहस्तथा । हिंसामावे हि ते भेष्ठा हिंसारूपास्तु दुःखदाः ।।६०॥ जपानुष्ठानपूजाद्या देवाराधनसाधकाः । उपस्कारा हि ते सर्वे निकृष्टा हिस्थकर्मणा
|| क्रूरा दुर्व्यसना दीना दुःखदारिद्रयपोडिताः । रोगप्रस्ता भवन्त्येते हिंसापापस्य सेवनान् ॥६२।। तस्माद्धिसामयं धर्म व उसीको कहते हैं और धर्मयज्ञ उसीको कहते हैं जिसमें किंचिन्मात्र मी हिंमा न हो, अथवा किंचिन्मात्र ॐ भी हिंसाका उद्देश्य न हो । ५४॥ इस संसारमै शुभाचार वा शुभ आचरण वे ही हैं, जिनमें हिंसाका सर्वथा त्याग
हो; क्योंकि बहुत ही थोड़ी सूक्ष्म हिंसा भी शुभाचार वा शुभ आचरणोंको नाश कर डालती है ॥५५॥ श्रेष्ठ चारित्र उसीको कहते हैं. जिसमें कभी भी हिंसा न करनी पड़े । तथा चारित्रके अभावमें भगवान् जिनेन्द्रदेवने लेशमात्र हिंसा अवश्य बतलाई है ॥५६॥ इस संसारमें भेष्ठ विचार उन्हींको कहते हैं जिनमें हिंसाका विचार
भी न करना पड़े । क्योंकि एक हिंसा ही इस संसारमें समस्त श्रेष्ठ विचारों का नाश करनेवाली है ॥५७।। | स्वसे श्रेष्ठ दर्शन वही है, जिससे हिंसाधर्ममें विश्वास न करना पड़े। क्योंकि आत्माके शुद्ध भावों में हिंमाका !
क्या प्रयोजन है ? ॥५८|| जहांपर सम्पादर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप आत्माके शुद्ध भावोंका नाश हो जाता है, वह रत्नत्रयको नाश करनेवाली हिंसा कहलाती है ॥५९॥ ध्यान, तप, यम, इन्द्रियदमन | समाधि और इंद्रियनिग्रह आदि सब हिंसाके अभावमें ही श्रेष्ठ माने जाते हैं। यदि यही ध्यानादिक हिंसारूप / हो सो फिर दुःख देनेवाले हो जाते हैं ।६०॥ जप, अनुष्ठान और पूजा आदि देवाराधनके जितने साधन हैं, वे यदि हिंसापूर्वक हों तो वे सब अत्यन्त निकृष्ट गिने जाते हैं ॥११॥ इस हिंसारूप पापके सेवन करनेसे ये जीव क्रूर, दुर्व्यसनी, दीन, दुःख और दरिद्रतासे पीड़ित तथा अनेक प्रकारके रोगोंसे घिरे हुए होते हैं ॥६२||
VASANSEXSANILEY