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WRITERSHISHESARMIRECHANN
लिये थे। उस समय परम गुरु प्राचार्य महाराजने साझा दाजितनाम मझधारी शाम वाया। उसी शात्रिपरिषद्
की बैठक में पूज्य "ब्रह्मचारी ज्ञानचन्द्रजी" महाराजने करीब दो घण्टा तक शात्रियोंके कर्तव्य और जैनधर्मके रहस्थपर all मर्मस्पर्शी तात्विक विवेचन किया था । आपके भाषणका प्रभाव उपस्थित सभी शास्त्री विद्वानोंपर बहुत पड़ा था। वहीं
दि० जैन शातिपरिषदने अत्यन्त हर्ष प्रकट करते हुए एक उट शास्त्री विद्वानके आदर्श स्वागी होनेपर गौरवाधायक प्रस्ताव पास किया था।
जिस समय श्री प्राचार्य संघ मोरेना (ग्वालियर स्टेट) में पहुंचा था, उस समय वहाँपर होनेवाले भा०दिर शास्त्रि-परिषद् के अधिवेशनके पूज्य सप्तम प्रतिमाधारी "ब्र० शानचन्द्रजी महाराज" सभापति चुने गये थे। सभाध्यक्षके नाते आपका भाषण अत्यन्त महत्वशाली एवं शास्त्रीय गवेषणापूर्ण हश्रा था। उक्त भाषण मुद्रित हो चुका है।
सप्तम प्रतिमा धारण करनेके पश्चात पूज्य "ब्रह्मचारी ज्ञानचन्द्रजी" श्रीसम्मेदशिखरसे लेकर सदैव परमपूज्य प्राचार्य महाराजके चरणोंके निकट संघके साथ ही भ्रमण करते रहे। आपकी वैराग्य भावना और भी बढ़ती गई और एक ही वर्प पीछे कुण्डलपुर क्षेत्र में आपने दशमी प्रतिमा ले ली। फिर दसरे वर्ष में ही अलीगढ़में आपने प्राचार्य महाराजसे तुल्लक दीक्षा ले ली। उस समय महाराजने आपका नाम "ज्ञानसागर" रखा। परमपूज्य श्री १०५ चालक हानसागरजी महाराज तुमक अवस्थामें रहते हुए स्वात्मोन्नति में तो निमन रहे ही, साथमें उन्होंने अनेक महत्त्वशाली कार्य किये। पुरुषार्थानुशासन, रयणसार, प्रतिक्रमण, षट्कर्मोपदेशरत्नमाला, उमास्वामि कृत श्रावकाचार, परमार्थोपदेश गुणभूषण श्रावकाचार आदि संस्कृत ग्रन्थोंकी आपने टीकाएँ की है। गुजराती भाषामें भी कई प्रन्थ लिखे हैं, कई स्वतन्त्र ट्रैक भी लिस्बे हैं। जैसे-जीवविचार, कर्मविचार, दानविचार आदि कई अत्युपयोगी ट्रेक आपने लिखे हैं। आपका || | बनाया हुआ 'यज्ञोपवीत संस्कार' ट्रैक दो भागोंमें छपा है, जो कि बहुत बड़ा है। आपके रचे हुए ट्रैलोका समाजने बहुत ही आदर किया है और उनसे बहुत लाभ उठाया है। भा० दि० जैन महासभाने भी उन्हें छपाकर सर्वत्र वितरण कराया है।
आपके ही आदेशसे अईन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु; इन पाँचों परमेष्टियोंकी पाँच प्रतिमाएँ-परमेष्ठियों का भिन्न-भिन्न स्वरूप प्रकट करनेवाली ३-३ फीट ऊँची शुक्त पाषाणकी अत्यन्त मनोश-चित्ताकर्षक श्रीगजपन्य सिद्धतेत्रपर उनके सब सहोदर भाइयोंने विराजमान कराई है। श्री वीर निःसंवत् २४६० में जब शोलापुरके प्रसिद्ध सेठ पूज्य