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में उत्तर प्रान्तके उद्धारकी भावना उन्होंने प्रकट की, तथा उसका सबसे बड़ा अमोघ उपाय परम पूज्य प्राचार्य महाराजका उत्तर भारतमें बिहार होना आवश्यक बताया, परन्तु निम्रन्थ वीतराग सपस्मी आचार्य महाराजने उत्तर प्रान्तके जैनियोंके उद्धारको भावनाको उत्तम समझते हुये भी उससमय उधर विहार करनेके लिये निषेध कर दिया। उन्होंने उन्ही दक्षिणकी एकान्स निर्जन पहाड़ी गुहा, मठ आदि स्थानोंको आत्मसिद्धिका अधिक साधन समझा और "फिर देखा। जायगा", ऐसा कुछ बाशाकी झलक दिलानेवाला उत्तर दे दिया । हमारे पूज्य शास्त्रीजी और उक्त जब्रेरीजो उस समय निराश होकर-किन्तु कुछ अाशाकी झलकका बीज बोकर बम्बई लौट आये, भावनाने दूसरी वर्ष पुनः प्रेरित किया। शास्त्रीजी तथा जयझेरीजी पुनः प्राचार्य-चरणोंमें निवेदन करनेके लिये दक्षिण गये और वहींपर शास्त्रीजीने परमपूज्य आधार्य महाराजसे द्वितीय प्रतिमाके व्रत प्रहरण किये। उसी समय प्राचार्य महाराजने कहा था कि सामें तुम्हारे जैसे व्रती विद्वानकी बहुत जरूरत है। उस समय जैनगजटके सम्पादकके नाते बलगांव-केश चलनेके निमित्तसे परमपूज्य वाचार्य महाराजके दर्शनार्थ श्रीमान् पं० लालारामजी शास्त्री भी वहां पहुंचे थे और श्रीमान पं० मक्खनलालजी शास्त्री भी आपके साथ थे।
इसप्रकार अव्हेरीजी और शास्त्रीजी द्वारा बार-बार प्रार्थना करने के पश्चात् श्रीसम्मेदशिखर मावि सिद्ध क्षेत्रों की वन्दना और उसर प्रान्तके जैनियों के उद्धारकी भावना रखकर परमपूज्य श्राचार्य महाराजका संघ दक्षिणके उपर प्रान्तमें विहार करने लगा। संघके विहारसे वि० सं० FEE४में श्रीसम्मेदशिखर सिसूक्षेत्रपर जो संचभक्त शिरोमणि सेठ पूनमचन्द घासीलालजी जव्हेरीजी द्वारा श्रीपनकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी, उस समय यहाँ सिद्धक्षेत्रकी बन्दना, पश्च
कल्याएकोका दर्शन और परमपूज्य वीतराग ऋषि आचार्य संघकी बन्दनाके लिये करीब सवा लक्ष दि.जैन-समुदाय का इकट्ठा हुआ था । वह उत्सव भी एक अभूतपूर्व उत्सव हुआ ।
सप्तम प्रतिमा दीक्षा उसी परम पावन श्रीसम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रपर फाल्गुन सुदी १३ वि०सं०१६८४ के शुभ मुहूर्तमें परमपूज्य श्री १० प्राचार्य शान्तिसागरजी महाराजसे उक्त श्रीयुत पं० नन्दनलालजी शाषीने ग्रहस्थाश्रमसे विरक्त होकर सप्तम प्रतिमाके व्रत