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ब्रह्मचारी जीवराजजी गौतमचन्दजी दोशीने वहाँपर नवीन मन्दिरका निर्माण और श्रीपचकल्याणक महोत्सव कराया
था, उसी में ये पाँचों नीम ये पाँचों प्रतिमाएँ भी प्रतिष्ठित हुई थीं। तथा उस क्षेत्रके सुयोग्य सभापति उक्त सेठ जोधराज भाई व बहाँकी माननीय सदस्य महानुभावोंकी धार्मिक स्नेहपूर्ण अनुमतिसे गजपन्थ क्षेत्रके पहाड़पर केन्द्रीभूत मध्य गुद्दामें ये पाँचों प्रतिबिम्प विराजमान हैं, जो बहुत ही मनोज्ञ एवं चित्ताकर्षक हैं।
इसी प्रकार देहली के धर्मपुरा के मन्दिरजी में अष्टप्रातिहार्यसहित अतीव रमणीक ३ फीट ऊंची प्रतिमा उन्हीं भाइयोंने विराजमान कराई हैं, ये सब महत्पुण्य-फलप्रद बृहत्कार्य परम पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक "ज्ञानसागरजी” महाराजके जिनेन्द्र-भक्ति-सूचक आदेश से ही हुए हैं।
आपने गृहस्थावस्थायें भी एक चाँदीकी सुन्दर खड्गासन प्रतिमा बनवाई थी, जो कि आपके गृह-विरत होनेपर मोरेना पचायतीमें विराजमान कर दी गई थी। अस्तु ।
संघ रहकर सबसे बड़ा कार्य ।
परम पूज्य क्षुल्लक ज्ञानसागरजी महाराजने संघमें रहकर सबसे बड़ा काम यह किया है कि संघके समस्त परमपूज्य मुनिराजों एवं क्षुल्लकको संस्कृतका अध्ययन कराया। उसका परिणाम बहुत जल्दी सिद्ध हुआ। कुछ ही वर्षमें 'परमपूज्य श्री १०८ मुनिराज नेभिसागरजी, मुनिराज वीरसागर जी मुनिराज कुन्धुसागरजी, मुनिराज चन्द्रसागरजी तथा लक यशोधरजी, लुल्लक पार्श्व कीर्तिजी आदि सभी संस्कृत, व्याकरण और साहित्यके बहुत उत्तम ज्ञाता बन गये हैं। संघमें उक्त सभी मुनिराज और क्षुल्लक यशोधरजी संस्कृत में खूब भाषण करते हैं। वे सभी संस्कृतके उत्तम विद्वान बन गये हैं। यह वीतराग-तपस्ता-जनित विशुद्ध वृत्ति क्षयोपशमका ही परिणाम है।
परम पूज्य तुल्लक “ज्ञानसागर जी" ने संस्कृतके अध्यापनके कार्यको एक उपाध्याय परमेष्ठीके समान किया है। परम पूज्य श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज कहा भी करते थे कि संघ में एक शास्त्री विद्वान्के आ जाने से उपाध्यायका कार्य होने लगा है। वर्तमानमें परम पूज्य सपोनिधि मुनिराज कुन्धुसागरजीने संस्कृतमें चौबीस भगवानोंका स्तवन और गुरु-स्तवन तथा बोधामृतसारग्रंथ भी बनाया है। आप भाषण देते हुए चट संस्कृत श्लोक बना डालते हैं,
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