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इसी प्रकार परम पूज्य प्रतिवादिभयङ्ककर तपस्वी मुनि चन्द्रसागरजी, शास्त्राध्ययनरत-मुनिराज धीरसागरजी, श्रासन योगी मुनिराज नेमीसागरजी आदि सभी साधु गण संस्कृतके प्रभावक विद्वान् हो गये हैं। इस परमाश्यक महान् आदर्श कामको उद्भट विद्वान् परम पूज्य क्षुल्लक ज्ञानसागरजी (वर्तमान परम पूज्य मुनिराज सुधर्मसागरजी महाराज ने कराया है।
मसिना थापा गहाराजकी सेवा करना, समस्त संघस्थ मुनिराजोंकी वैय्यावृत्य करना, एक उत्तम अनुभवी वैध होनेके कारण संघके तपस्वियोंकी समय-समयपर प्रकृतियोंको सम्हालना, गृहस्थोंसे उनकी समयोचित वैयावृत्य कराना, विशिष्ट धर्मकार्योंकी सिद्धिके लिये, संघका बिहार करानेके लिये श्रावकोंको अनुमति देना, इसके सिवा जैन तथा जैनेतर विद्वानोंकी शष्टाओंका समाधान करना एवं भाषणों द्वारा जनताको धर्मलाभ एवं धर्ममे ढ़ता उत्पन्न कराना आदि अनेक महत्त्वपूर्ण काय, महाराज "तुल्लक झानसागरजी ने किये हैं।
मुनिदीक्षा-समारम्म जो पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा संघभक्त शिरोमणि सेठ पूनमचन्द घासीलालजी जौहरीने प्रतापगढ़ में कराई थी, उसी प्रतिष्ठामें केवलज्ञान कल्याणकर्क समय फाल्गुन सुदी १३ वीर नि० सं० २४६० में क्षुल्लक "श्रीज्ञानसागरजी"ने परम पूज्य श्री१०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज परम गुरुसे मुक्तिदायिनी मुनिदीक्षा धारण की थी। श्राचार्य महाराजने उस समय आपका मुनि अवस्थाका नाम 'सुधर्मसागर' घोषित कर दिया था। यहींपर परमपूज्य जुल्लक नेमिकीर्तिजी
और ब्र० सालिकरामजीने क्रमसे मुनिदीक्षा और सुन्नकदीक्षा आचार्य महाराजसे ग्रहण की थी। उस समय आचार्य महाराजने उनका नाम क्रमसे "मुनि आदिसागर" और "क्षुल्लक अजितकीर्ति" घोषित किया था। उस समय उपस्थित करीब ४०००० चालीस हजार जनतामें बहुत भारी प्रभावना हुई थी। अस्तु । बढ़ी हुई वैराग्य-वृत्ति तथा प्रताभ्यामोंके कारण श्री १०८ वीतराग तपन्वी परमपूज्य मुनिराज "सुधर्मसागरजी" महाराज अनेक उपवास, नीरस श्राहार, बहुत कालतक ध्यान आदि कठिन तपश्चरण करते है। साधुंपदोचित शास्त्रोक्त अट्ठाईस मूलगुणोंका पालन करते हैं। ध्यानातिरिक्त समयमें शास्त्र-स्वाध्याय एवं शाम्य-निर्माण श्रादि वीतराग कार्योंमें ही समयको लगाते हैं।
गुरुतर कार्य-भार उदयपुर चातुर्मासके समय परम पूज्य आचार्य महाराजने शिक्षा-दीक्षा देने श्रादिका अपना प्राचार्योचित कार्यAll भार भी परम पूज्य मुनिराज मुधर्मसागरजी महाराजको सौंप दिया था । यद्यपि महाराज सुधर्मसागरजीने इस गुरुतर