________________
सु०प्र०
॥६॥
स्वारमन महावतम् । ब्रह्मचर्य जगत्पूज्यं 'सुधर्म' मुनिसेवितम् ॥६॥ सण्यिन्यानि पापानि नाममात्राणि भूतले । संगमेकं महत्पापं पापमूलं परं मतम् ।।६या मूर्छासमोन वा क्वापि व्याधिः संतापकारकः । तेनैव सुगृहीतात्मा दुःखा ताम्यति मूच्र्छति ।।६६|| अनर्थो दुखदाः सर्वे पापपङ्कप्रदायकाः। श्वभ्रादिभूमिका येऽत्र मूर्छयैव भवन्ति ते ॥६॥ मूसिंगस्य ते चित्तेऽणुमात्रं जायते यदि। आत्मन् तदा हि तृष्णाग्निज्वालयति संततम्॥६॥ संगादेव विमुह्यन्ति जोचा हि परवस्तुनि । पापं कुर्वन्ति तेनात्र धोरं घोरं च श्वभ्रवम् ॥ा सर्वानर्थप्रदाऽऽशा सा तृष्णा च भववर्द्धिका । सज्ज्ञाननाशको मोहः संगादेव हि जायते || व्यामोहाजायते चेच्छा तितस्तु शामिवईते: तृष्णातो जायते पाप | पापा दुखं प्रजायते ।।७१।। संगेच्छामात्रतः शीघ्र कपायाणां समागमः । जगजन्तुविघाताय जायतेऽनन्तपापकृत् ।।७२||
इसलिये हे आत्मन् ! नो ब्रह्मचर्य जगत्पूज्य है, श्रेष्ठ धर्मस्वरूप है और मुनियों के द्वारा सेवन करने योग्य है, | ऐसे इस ब्रह्मचर्यरूप महाव्रतको तू सब तरहके प्रयत्नोंसे धारण कर ||६४।। इस संसारमें अन्य जितने पाप में हैं, वे सम नाममात्रके पाप हैं, सबसे बड़ा महापाप एक परिग्रह ही है ! यह परिग्रह पापका कारण है ।।६।।
ममत्वके समान संताप उत्पन्न करनेवाली अन्य कोई व्याधि नहीं है। इस मोहवा ममत्वसे lik घिरी हुई आत्मा ही अनेक दुःखोंसे दुःखी होती है और मच्छित होती है ।।६६। इस संसारमें दुःख देनेवाले
पापरूपी कीचड़में डुबोनेवाले और नरकादिकके महादुःख देनेवाले जितने अनर्थ हैं, वे सब इस मोह वा | ममत्व परिणामोंसे ही होते हैं ।।६।। हे आत्मन् ! यदि तेरे हृदयमें इस परिग्रहका मोह अणुमात्र मी उत्पत्र | हो जाता है, तो तृष्णारूपी अनि फिर तुझे सदा ही जलाती रहेगी ॥६८॥ ये जी इस परिग्रहसे ही पर पदा
थोंमें मोहित होते हैं और इसी परिग्रहके कारण नरको इबोनेवाले पोर महापार करते हैं ॥६९।। सब तरह के | अनयोंको उत्पन्न करनेवाली आशा और संसारको बढ़ानेवाली तृष्णा इस परिग्रहसे ही उत्पन्न होती है, तथा | इस परिग्रहसे ही सम्याज्ञानको नाशकरनेवाला मोह प्रमट हो जाता है ॥७०॥ मोह उत्पन्न होनेसे इच्छा होती है, इच्छासे तृष्णा पड़ती है, तृष्णासे पाप होता है और पापसे महादुःख उत्पन्न होता है ॥७१। इस परिग्रह की इच्छामात्रसे संसारभरके समस्त जीवों का संहार करनेके लिये अनंत पापोंको उत्पन्न करनेवाले कपाय शीघ्र ही उत्पन हो जाते हैं । ७२।। महारंभोंको उत्पन्न करनेवाला संक्लेश इस परिग्रहसे ही उत्पन्न होता है