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सु० प्र०
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बा७४॥
त्यज पापं हि मैथुनम् । स्वर्गापवर्गसौख्यस्य ब्रह्म साधक माघर ||४॥ ये ब्रह्मशानिनो जोवाः परब्रह्मस्वरूपकाः । ब्रमचर्येण ते सर्वे जाता इति च मन्यताम् ॥५६॥ कल्याणं मजलं भद्र' सुखं संतृप्तिकारकम् । ऋद्धिवृद्धिसमृधायाः सर्ने स्यु
नचर्यतः ॥५४ा प्रशचर्यप्रभावेण भावाद्देवा भजन्ति हि । शक्तिहीनं नरं तुच्छ' ब्रह्मतः विन्न जायते ॥१८॥ तीर्थरास्तु ये प्राप्ताः शिव नित्यं सुखात्मता ! नर्येण के इति न हायना स्फु ! मोझसौख्यस्य सोपान ब्रह्मचर्य मतं जिनैः । एकेन ब्राह्मचर्येण मोक्षसिद्धिर्निरत्यया ॥६०|| ब्रह्मचर्य व्रतं येन धुतं भक्त्या त्रिशुद्धिभिः । ऊडा मुक्ति वधूस्तेन भृशं पूतमहात्मना ।।६१॥ ब्रह्मचर्य प्रतं यस्यं निर्मलं हि त्रिशुद्धितः । तस्यैव सफलं वृत्तमन्येषां तु निरर्थकम् ॥६२|| ब्रह्मचर्य महापूतं धारयात्मन् गुणाकरम् । मुनीन्द्रा हि यतस्तेन संसाराब्धि तरन्ति ते १६| तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भज
अरे! तू विवेकरहित होकर दुर्गतिमें क्यों पड़ता है ?॥५४॥ इसलिये सब तरह के प्रयत्नों के द्वारा इस मैथुन-सेवन| रूप पापका त्याग कर और स्वर्ग-मोक्षको सिद्ध करनेवाले ब्रह्मचर्यका पालन कर ॥५५।। इस संसारमें जो ब्रह्मज्ञानी हुए हैं और ब्रह्मस्वरूप हुए हैं, वे सब इस प्रवर्य के पालन करनेसे ही हुए हैं, ऐसा समझना चाहिये
॥५६॥ संसारमें जितने कल्याण है, मंगल हैं, भद्र हैं, अत्यन्त संतुष्ट करनेवाले सुख हैं तथा जितनी ऋद्धि, वृद्धि | वा समृद्धि है; वे सब ब्रह्मचर्यसे ही उत्पन्न होते हैं ॥५७।। इस ब्रह्मचर्य के प्रतापसे देवलोष बड़ी मक्तिले अत्यन्त | तुच्छ और शक्तिहीन मनुष्यकी भी सेवा करते हैं, सो ठीक ही है; क्योंकि इस ब्रह्मवर्षके प्रतापसे क्या क्या नहीं
होता है ? ॥५८॥ तीर्थकरोंने जो नित्य सुखस्वरूप मोक्ष प्राप्त की है, वह एक ब्रह्मचर्य के प्रतापसे ही प्राप्त की हैं | | ऐसा स्पष्ट समझ लेना चाहिये ॥५९|| भगवान जिनेन्द्रदेवने इस ब्रमचयको ही मोक्ष सुखकी सीढ़ी बतलाई | | है । इस एकही ब्रह्मचर्य से कमी न नाश होनेवाली मोक्ष की सिद्धि होती है ॥६०॥ जिस पुरुपने भक्तिपूर्वक
मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया है, उस पवित्र महात्माने मोक्षरूपी स्त्री 5] ही प्राप्त कर ली, ऐमा समझना चाहिये ॥६॥ जिसका नमवत्र व्रत मन, वचन और कायकी शुद्धतासे अत्यन्त
निर्मल है, उसीका सम्यक्चारित्र सफल समझना चाहिये । अन्य जीका चारित्र केवल ब्रमचर्य के अमावसे निरर्थक ही समझना चाहिये ॥६२॥ इसलिये हे आत्मन् ! अनेक गुणों से भरपूर और महापवित्र ऐसे इन ब. चर्य प्रतको धारण कर, क्योंकि इस ब्रह्मचर्य व्रतसे ही मुनिलोग संसाररूपी समुद्रसे पार होते हैं ॥६॥
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