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सु०प्र०
दह्यमानः पतङ्गवत् । भस्मीभवति शीघ्रस सीमुग्धानां कुतो मतिः ॥४५॥ अग्निना हि प्रधानामुपायोऽस्ति यतोऽत्र वै। कामाग्निना प्रदग्धानां नास्त्युपायः क्वचित्कदा ॥४|| भुनगीभिस्तु ये दष्टास्ते नष्टा वा न तद्भवे। ये दष्टार खोभुजतो. भिस्ते नष्टा हि भवेभवे ॥४ा कोदिजन्मान्तरे लभ्यं नरत्वं दुर्लभं ननु । आत्मन्नतजात्पापानर त्वं नश्यसे कथम् ॥४८॥ शम्भुहर्यादिदेवा ये कामेनकेन ते जिताः । कामो हि दुर्धरो लोके महामोहकरो यतः ॥४ा वशंगता हि देवेन्द्रा दानवा दैत्यजाः सुराः । कामस्य पापकस्यास्य के वा लोके न मोहिताः ॥१०।। त्रीत पर समुत्पनो व्यामोहः कामद्धकः । जीवानां मूच्र्छते सोऽय संज्ञाहीनं करोति वा ॥५१॥ कृमिजन्तुलटैः पूर्ण लीजवनं मलाविलम् । पापो करोति वा मोहं तत्र कामकुचेष्टया ॥५२॥ यावदात्मन् स कामाग्निश्चित्ते उचलति ते स्फुटम् । ताबद्धर्मस्य वार्तापि चित्ते स्फुरति हे कथम् ॥५३॥ तस्मात मैथुनं पाप रे आत्मन त्वं त्यज त्यज । विवेकविकलो भूत्र कथं पतसि टुर्गी ॥४|| तस्मात्सर्वप्रयते
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| ही है, क्योंकि स्त्रीमें मोहित होनेवाले जीवोंको श्रेष्ठ बुद्धि कैसे हो सकती है ?॥४५॥जो जी अमिसे जल जाते
इस संसार में उनका उपाय तो हो जाता है, परंतजो जीत कामका अग्नि जल जाते हैं, उनका कमी कोई उपाय नहीं हो सकता ॥४६|| सर्पिणी जिनको काट लेती है, वे जीव बच भी जाते हैं और यदि मरते हैं तो उसी | मवमें मरते हैं, परंतु स्त्रीरूपी सर्पिणीके द्वारा काटे हुए जीव भाभवमें मरते रहते हैं ॥४७॥ यह मनुष्यजन्म
करोड़ों भवों में भी बड़ी कठिनतासे प्राप्त होता है, उसको पाकर मैथुन सेवन रूप पापसे इस जन्मको कमी नष्ट भ्रष्ट नहीं ६ करना चाहिये ॥४८॥ इस कामने हरि इर आदि देवों को भी हरा दिया है। इस संसारमें यह काम अत्यन्त कठिन
है और महामोह उत्पन्न करनेवाला है॥४९॥ हम संमारमें देवोंके इन्द्र, दानव, दैत्य और देव सब इस महापापी कामके वश हो गये हैं, सो ठीक ही है, क्योंकि इस संसार में कामसे मोहित कौन नहीं हुआ है ? ॥५०॥ कामको बढ़ानेवाला व्यामोह स्त्रीसे ही उत्पन्न होता है और यही व्यामोह जीवों को मूछित कर देता है और ज्ञानहीन कर देता है ॥५१॥ यह स्त्रियोंका जघनस्थान अनेक प्रकारके कीड़े, जन्तु आर लद आदिसे भरा हुआ है, और मलसे भरा हुआ है; उसीमें कामकी कुचेष्टा करता हुआ यह पापी जीव मोहित हो जाता है ।॥५२॥ हे आत्मन् ! जब तक तेरे हृदयमें कामरूपी अग्नि जलती रहती है, तब तक तेरे हृदयमें धर्मकी कोई बात मी स्फुरायमान नहीं हो सकती ॥५३॥ इसलिये हे आत्मन् ! तू इस मैयुनसेवनरूप पापको छोड़ छोड़ ।