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सु० प्र०
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भूतले । दुःखशोकपरीतापविपत्तीनां मतं गृहम् ||३६|| एकतो मैथुनं पापं सर्वपापानि चान्यतः। तुलां कोटिं न विवन्ति गरीयस्तद्धि मैथुनम् ||३७|| श्वत्रादि दुर्गतेः स्थानं वा कलंकस्य भाजनम् । अपमानस्य बीजो हि तत्पापं मैथुनं मुबि ||३८|| सेवनाच्छो रोगाः सर्वे भवन्ति च । पराभवोऽय जीवानां तेन स्याद्धि पदे पदे ||३१|| धनधान्यसमृद्धीनां नाशो मैथुनपापतः । जीवस्य जायते शोधमयशः स्वादे परे ॥ स्वराशन्नि मातरम् | दाहा स्वस्त्रीवधं कृत्वाऽऽकांक्षत्येष पराङ्गनाम् ||४१|| ब्रह्मपापतो नूनं स्वात्महत्यां करोति वा । हा पापिनां विवेको न कृत्याकृत्यस्य भूतले ||४२ || ब्रह्मपातः शोध व्यसनानां समागमः । संपत्स्यते हि जीवानां संसारस्य च वर्द्धः ||४३|| तपोध्यानदद्यासत्य संयमादिकसद्गुणाः । ब्रह्मपापतो नूनं पलायन्वे हि लाघवात् ||४|| कामाग्निना हि मूढात्मा इस संसार में मैथुन सेवनके समान अन्य कोई निन्दनीय पाप नहीं है, यह पाप दुःख, शोक वा संताप और अनेक विपत्तियों का घर है ||३६|| यदि एक ओर मैथुन सेवनका पाप रख लिया जाय और दूसरी ओर अन्य समस्त पाप रख लिये जायं तो भी वे सब मैथुन सेवनकी समानता नहीं कर सकते । मैथुन सेवनका पाप उन सबसे भी अधिक होता है ||३७|| इस संसारमें यह मैथुन सेवनरूप पाप नरकादिक दुर्गतियों का स्थान है, कलंकका पात्र है और अपमानका कारण है ||३८|| इस मैथुन सेवन से समस्त रोग शीघ्र उत्पन्न हो जाते हैं और इसी के सेवनसे जीवों को पदपदपर तिरस्कार सहना पड़ता है ||३९|| इस मैथुन सेवनके पापसे इस जीवके धन, धान्य और समस्त संपदाओं का नाश हो जाता है और पद पदपर अपयश होता है ||४०|| इस मैथुन सेवन के पाप से मोहित होकर यह मनुष्य माताको मार डालता है और अपनी स्त्रीको मारकर परस्त्रीकी इच्छा करता है ||४१ || इस मैथुन सेवनके पापसे यह मनुष्य अपनी आत्महत्या भी कर लेता है। सो ठीक ही है, क्योंकि पापी जीव कृत्य अकृत्य आदिका कोई किसी प्रकारका विवेक नहीं करते हैं || ४२ ॥ इस अब सेवन के पाप से जीवों के जन्म-मरणरूप संसारको बढ़ाने वाला समस्त व्यसनों का सनागम बहुत शीघ्र हो जाता है ||४३|| तप, ध्यान, दया, सत्य और संयम आदि समस्त सद्गुण छन् अत्र सेवन के पापसे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ||४४|| कामरूप अप्रिसे जला हुआ यह सूर्ख पतंग के समान शोत्र ही भस्म हो जाता है, सो ठीक
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