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स०प्र०
हास्तेयकर्मतः ॥२६ प्रत्यहादुःखदं लोक स्तेयपापंसुनिश्चितम् । परत्र नरकादौ हि दारुणं दुःखदायकम जास्तेयपापं परि. त्यज्य भजास्तेयं महानतम्। सर्वेषामेव सौख्यानां निदानं तदिदंत्रतम्॥२८॥ कुकरकपटादीनां दुर्गुणानां स्वतः स्वयम् । स्तेयस्य त्यजनेनात्र त्यागोधा स्पादयनतः॥२६॥सन्मानस्य विधातारं विश्वामस्य च मन्दिरम् । कल्याणस्य सुनेतारंधरातयं महानतम ॥३०॥ महापापकरं ग्तेयं जिनाझालोपकं हि तत् । श्रात्मनः शुद्धभावस्य वन स्तेयमुच्यते॥३१॥ास्तेयमात्र सदा त्याज्यं जिना गनिदेशतः । महाव्रतं यदस्तेयं धार्य उन्मुनिसत्तमैः ।।३।। प्रतिष्ठायतनं तद्धि सर्वसंकटहारकम् । श्रेष्ठं प्रमाणभूतं षाऽस्तेयं ननु महानतम् ॥३२॥ विपत्तिमात्रतस्तद्धि रक्षिष्यति च रक्षति रक्षिवाश्च पुरा लोके बहवः सज्जना जनाः ॥३४॥ तस्मा. सुखकरं श्रेष्ठमस्तेयं तन्महाव्रतम् । त्वं गृहाण सुभ'वन रे पात्मन् सुन्थलिप्सया ॥३॥ नैथुनेन समं निन्यं पापं नास्तीह ॥२५|| इस संसार में जीवोंको जीवित रखने के लिये धन ही प्राण हैं, चोरी करनेवाला जब चोरी करके उसका धन हरण कर लेता है तो समझना चाहिये कि उसने उसके प्राण ही हरण कर लिये ॥२६।। यह सुनिश्चित है कि इस लोक में चोरी रूप पापसे प्रत्यक्ष दुःख उत्पन्न होता है, सथा परलोकमें नरक निगोदमें दारुण दुःख होता है ॥२७|इसलिये हे आत्मन् ! चोरीके पापको छोड़कर तू अचौर्य महाव्रतको धारण कर । यह अचाप महावत समस्त सुखोंका मूल कारण है ॥२८॥ इस चोरी करनेरूष पापका त्याग करदेनेसे क्रूरता कपट आदि अनेक दुर्गुणों का त्याग बिना किसी प्रयत्नके अपने आप हो जाता है ॥२९॥ यह अचार्य महाप्रत सन्मानको देनेवाला है, विश्वासका घर है और समस्त कल्याणोंको प्राप्त करानेवाला है। है आत्मन् ! ऐसे इस अचाय महाव्रतको तू धारण कर ॥३०॥ यह चोरीरूप पाप महापापोंको उत्पन्न करनेवाला है और जिनेन्द्र देवकी आज्ञाको लोप करनेवाला है । यही चोरीरूप पाप आत्माके शुद्ध भावोंको ठगनेवाला है ॥३२॥ इसलिये भेष्ट सुनियोंको आगमकी आज्ञाके अनुसार सदाके लिये चोरीका त्याग कर देना चाहिये और अचौर्य महाव्रतको धारण कर लेना चाहिये ॥३२॥। यह अचौच महाव्रत प्रतिष्ठाका स्थान है, समस्त संकटोंको दूर करनेवाला है, सर्वश्रेष्ठ है, और प्रमाणभूत है ।।३३।। यह अचौर्य महाव्रत विपत्तिमात्रसे इस जीवकी रक्षा करता है, आगे करेगा।
और पहिले भी इसने अनेक सजन लोगोंकी इस लोकमें रक्षा की है ॥३४॥ इसलिये हे आत्मन् ! तू सुख| की इच्छासे भेष्ठ भावोंके द्वारा सुख देनेवाले सर्वश्रेष्ठ इस अचौर्य महाव्रतको धारण कर ॥ ३५॥ |