________________
मादी
महायोगी जयेत्कर्माष्टकं परम् ॥४०॥ मनोवशं समायाति चल दीयं च वर्द्धते । ध्यानशक्तिदृदा याति ऋद्धयो यांति तं सदा ॥४१॥ भूतप्रेतोद्भयां बाधामुपसन सुदस्तरम् । सहते स्वात्मवीर्येण स योगी तत्वचिन्तकः ॥४२॥ मनोवर्श प्रकस समर्थोऽचलधीरसौ। जिनशासनदेवास्ते तदशं यान्ति निश्चयात् ॥४३॥ अतो हि पंचतत्त्वं तदभ्यस्ये. लुद्धभावतः । निजात्मरूपमुहिश्य ध्यायेत्तत्त्वं जिनागमान् ४४|| इति परमसुतन्वं पंचपृथ्व्यादिरूप ग्मरति जयति भक्त्या चिन्तयेत्स्वात्मचित्ते । इह स हि लमतेऽसौ शुद्धरूपं निजस्य परमविभवबुक्तं शुद्धबुद्ध सुधर्मम् ।।४॥
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालङ्कारे पिण्डस्यध्यानस्थितपंचतत्ववर्णनो नाम एकविंशतितमोऽधिकारः ।
RAPARYAYERICA
| रूपवती धारणा कहते हैं ॥३९।। मंत्रोंको जाननेवाला जो महायोगी निर्भय चित्त होकर इसप्रकार पांचों | तचोंका स्मरण करता है, वह आठो कोको अवश्य जीतता है ॥४०॥ इन पांचों तच्चोंका चिन्तवन करनेसे
मन वशमें हो जाता है, बल और वाय ( शाक्त ) बढ़ जाता है, ध्यानशक्ति दृढ़ हो जाती है और सब ऋद्धियां । E! उसके समीप आ जाती है ।।४। इन तत्वोंको चिन्तवन करनेवाला महायोगी अपने आत्माकी महा- |
शक्तिसे भूत प्रेतोंसे उत्पन्न हुई समस्त बाधाओंको और कठिनसे कठिन उपसर्गों की सहन कर लेता है ॥४२|| || || अचल बुद्धिको धारण करनेवाला वह महायोगी इन पांचों तत्वोंका चिन्तवन करनेसे अपने मनको वश | | करनेमें समर्थ हो जाता है और जिनशासन देवता सब उसके वश हो जाते है यह निश्चित सिद्धांत है ॥४३॥ इसलिये निर्मल परिणामोंसे पांचों तत्वों के चिन्तवन करनेका अभ्यास करना चाहिये और जिनागमके अनुमार अपने आत्माके स्वरूपको उद्देश्यकर पांचों तस्त्रोका ध्यान करना चाहिये ॥४४॥ पृथ्वी, श्वसना, चारुणी, आग्नेयी, तस्वरूपवती ये पांच तत्व वा पांच धारणाएँ बतलाई गई हैं, वे परमोत्कृष्ट हैं ! जो योगी अपने चित्तमें इन पांचों तच्चोंका स्मरण करता है चा भक्तिपूर्वक जप करता है, और चिन्तक्न करता है वह इस संमार में || अपने शुद्ध स्वरूपको अवश्य ही प्राप्त हो जाता है तथा परम विभूतिसे सुशोभित शुद्ध और बुद्धस्वरूप अपने | आत्मरूप श्रेष्ठधर्मको अवश्य प्राप्त कर लेता है ॥४५॥ इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालङ्कारमें पिण्डस्थध्यानमें पांचों तत्वोंको
निरूपण करनेवाला यह इक्कीसवां अधिकार समाप्त हुआ।