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द्वाविंशतितमोऽधिकारः ।
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योगतत्त्वस्य बेतारं पदस्थ ध्यानसिद्धये । नमिनाथं सुयेगीशं वंदे योगीश्वरार्चितम् ||१|| शब्दझमयं वंदे परमाश्चर्यकारकम् । स्वात्मतत्त्वस्वरूपं वा वीतरागं विकल्मषम् ||२|| योगतत्त्वस्य सोपानं सर्वसिद्धिकरं परम् । प्रत्यक्षफलदं नौमि शब्दब्रह्म महेश्वरम् ||३|| देवता भूतयेताला राक्षसाः किन्नराः सुराः । सर्वे देवा वशं यांति संततं शब्दब्रह्मणा ||४|| सुधानस्यादिमं बीजमृद्धिसिद्धिप्रदायकम् । मन्त्ररूपमयं शब्दब्रह्माणं च नमाम्यहम् ||५|| अनादिनिधनो वर्णः स्वयं सिद्धो विचित्रकः । अनंतशक्तिसंत्र्यात्रः कथितो हि जिनागमे ||६|| यथा यथा सुभावेन ध्याता निर्मलचेतसा ।
जो नमिनाथ भगवान् योगतत्त्वके जानकार है, योगियोंके स्वामी हैं और योगीश्वरोंके द्वारा पूज्य हैं; ऐसे भगवान् नमिनाथको मैं पदस्य ध्यानकी सिद्धिके लिये नमस्कार करता हूं || १|| जो देव वीतराग हैं, दोषरहित हैं, परम आश्चर्य करनेवाले हैं और समयसारमय हैं; ऐसे शब्दब्रह्ममय परमदेवको मैं नमस्कार करता हूं ||२|| जो योगरूप तस्वकी सीढ़ी हैं, समस्त सिद्धियोंको करनेवाले हैं और प्रत्यक्ष फल देनेवाले हैं, ऐसे शब्दत्रणमय महेश्वरको मैं नमस्कार करता हूं ||३|| इस शब्दब्रह्मके द्वारा देवता, भूत, वेताल, राक्षस, किभर, देव आदि सब देव सदा के लिये वश हो जाते हैं || ४ || यह शब्दमा मंत्ररूप है, ऋद्धि-सिद्धियोंको देनेवाला है और
ध्यानका मूल कारण है; ऐसे शब्दजनको मैं नमस्कार करता हूं ||५|| भगवान् जिनेन्द्रदेवके आगममें अकारादिक वर्ण अनादि-निधन माने हैं, स्वयं सिद्ध माने हैं, विचित्र माने हैं और अनन्त शक्तिको धारण करनेवाले माने हैं || ६ || ध्यान करनेवाले अपने निर्मल हृदयसे श्रेष्ठ परिणामोंसे जैसे जैसे तन्मय होकर शब्द
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