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सन्मयत्वेन तं शब्दब्रह्माणं ध्यायति स्फुटम् ।।७।। तथा तथा स योगीशः परब्रह्म प्रपद्यते । शब्दब्रह्म ततो देवैः परमात्मा | प्रमीयते ॥ नादिवर्णमाला तामह जोद्भवा शुभाम्। ध्यायेव स्थिरचित्तेन सदाचेतोजयाय वै ॥६॥ कल्पये हदि घादौ वा पर षोडशपत्रकम । वर्णमूला स्वतः सिद्धां स्थापयेच स्वरावलिम् ॥१०॥ चतुर्दशदलाकारं पन्न संस्थाप्य घेतसि । प्रतिपश्च संन्यस्य ब्रह्मस्वरं प्रभान्वितम् ॥१शा विद्यानां मूलबीजं तत प्रधानं सर्ववर्णके। ध्यायेश्च स्थिरचित्तेन प्रशांतमनसाऽथवा ॥१॥ कणिका प्रति प्रत्येक संस्थाप्यानुनमात्स्वरम् । ध्यायेछ क्रमशः सर्वान स्थिरबुद्धया सुभावतः ॥१२॥ यदा हि कणिका मध्ये 'अ' इति स्वरमंत्रकम् । भ्यस्य ध्यायति योगीशस्तदा स स्वस्थतां भजेत् ॥१४॥ एवं रीत्या स्वरान सर्वान शीर्षके दि मस्तके । संस्थाप्य शुद्धचित्तेन ध्यायेव सर्वसिद्धये ।।१।। दिक् पल्लवासना मुद्रा
ब्रह्मका ध्यान करता है, वैसे ही वेसे वह योगिराज परब्रमको प्राप्त होता जाता है । इसीलिये भगवान् सर्वन देव | शब्दब्रह्मको ही परमात्मा कहते हैं ॥५-८॥ यह अनादिकालसे चली आई वर्णमाला भगवान् अरहतदेवके स्वरूपको कहनेवाली बीजाक्षररूप है, शुभ है । अपने मनको जीतनेके लिये स्थिरचित्त होकर इसीका सदा ध्यान करते रहना चाहिये ॥९॥ सबसे पहले अपने हृदयमें सोलह दलके कमलका चितवन करना चाहिये | और उसमें वर्णोकी मूलभूत स्वतःसिद्ध स्वरोंकी पंक्तिका स्थापना करनी चाहिये ॥१०॥ अथवा अपने हृदयमें
चौदह दलके कमलकी कल्पना करनी चाहिये और प्रत्येक दलमें प्रभावशाली एक एक ब्रह्मस्वरकी स्थापना
करनी चाहिये ॥११॥ यह स्वरकमल समस्त विद्याओंका मूल बीज है, सब वोंमें प्रधान है, इसलिये स्थिर5. चित्त होकर शांत मनसे इसका ध्यान करना चाहिये ॥१२।। अथवा उस कमलकी कर्णिकापर अनुक्रमसे सब | स्वरोंका स्थापन करना चाहिये और फिर स्थिरचित्त होकर श्रेष्ठ परिणामोंसे अनुक्रमसे उन सबका ध्यान करना चाहिये ।।१३।। जब यह योगी कर्णिकाके मध्यभागमें 'अ' इस मंत्ररूप खरको स्थापनकर ध्यान करता है, तब वह योगी अपने आप स्वस्थ हो जाता है ॥१४॥ इसीप्रकार सब स्वरोंको मस्तकपर, शिरपर अथवा
हृदयपर स्थापनकर समस्त कार्योकी सिद्धि के लिये शुद्ध चित्तसे ध्यान करना चाहिये ॥१५॥ दिक, पल्लच, E आसन और मुद्रा आदिके भेदसे इन मंत्रोंके कितने ही भेद हो जाते हैं । इसलिये इनके भेदसे विशेष रीतिसे
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