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मु. प्र० ॥ १४ ॥
दिभेदतो हि मंत्रकम् । ध्यायनिरन्तरं ब्रह्म स्वरमाला विशेषतः ॥१६|| हृदि संस्थाप्य सत्पद्म पनाविंशतिपत्रकम् । प्रतिपत्रं न्यसंपूर्णमावर्गान्तं सकगिकम ॥१७॥ ध्ययेष क्रमशो नित्यं प्रतिवर्ण शनैः शनैः । एकाप्रमनसा योगी वानन्यमनसा स्थिरम् ।।१८।। अन्यत्पझच पत्राष्टं स्थापयेन्मुखपद्मके। अन्तःस्थसान्तवर्णान्तं ध्यायेच शुद्धभावतः ।।१६।। ध्यानसिद्धिर्भवेत्तस्य महाकल्याणकारिका मनो हि शान्तिनां याति धैर्यता च प्रजायते ॥२०॥ 'श्रो'मेतरच महामंत्रं परमेष्ठिप्रवाचकम्। विद्यानामादिमस्थानं ध्यानबीजं मतं जिनः ॥२१॥ भाले नेत्रे ललाटे च शीर्षके नाभिमण्डले । 'ओं' संस्थाप्य महामंत्रं ध्यायेत्कर्मविनाशकम् ||२२॥ सर्वदेवमयं मंत्रं सर्वयोगीश्वराचितम् । सर्वशलिप्रपूर्ण हे सर्वसिद्धिकरं परम् ॥२३॥ एकाग्रमनसा नित्यं स्थिरभावन यो जनः । ध्यायेदेसम्महामंत्र संसारात् संतरीति सः ।।२४।। पाध्यानमाध्यामिदिमा सगुल्हभिः । 'प्रोमिति ध्यायतां तस्मात्कर्मनाशाय धीधनैः ॥२५॥
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| नमस्वरमालाका निरंतर ध्यान करना चाहिये ॥१६॥ अपने हृदयमें पच्चीस दलका कमल स्थापित करना
चाहिये और उन दलोंपर 'क' से लेकर 'म' पर्यंत अक्षर लिखने चाहिये, कर्णिकापर स्वर लिखना चाहिये । फिर उस योगीको एकाग्र मनसे अन्य सब चितवनोंको छोड़कर धीरे धीरे अनुक्रमसे प्रत्येक वर्णका ध्यान करना चाहिये ॥१७-१८॥ अथवा अपने मुखकमलमें आठ दलके कमल की कल्पना करनी चाहिये और उन पर 'य र ल व श प स है' इन आठ अक्षरोंको स्थापनकर शुद्ध भावोंसे उनका ध्यान करना चाहिये ।।१९।। इसप्रकार चितवन करनेसे महाकल्याण करनेवाली ध्यानकी सिद्धि होती है, मन शांत हो जाता है और
धारता उत्पन्न हो जाती है ।।२०। यह भी एक महामंत्र है, परमेष्ठीका वाधक है, समस्त विद्याओंका | | प्रथम स्थान है और ध्यान का बीज है, ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेव कहते हैं ॥२शा अपने ललाटपर |
मस्तकपर, नेत्रोंमें, नाभिमण्डल में 'ओम' इस महामंत्रको स्थापनकर कर्मोंका नाश करने के लिये उसका ध्यान है करना चाहिये ॥२२॥ 'ओम्' यह महामंत्र सर्वदेवमय है, समस्त योगीश्वरोंके द्वारा पूज्य है. समस्त शक्तियोंसे | | पूर्ण है और समस्त सिद्धियोंको करनेवाला है । जो मनुष्य एकान मनसे, स्थिर भावोंसे नित्य ही इस महामंत्रका | | ध्यान करता है, वह संसारसे अवस्य पार हो जाता है ॥२३-२४॥ इसीलिये मोक्षकी इक्षा करनेवाले और 15
बुद्धिरूपी धनको धारण करनेवाले तथा यदस्य ध्यानको धारण करने की इच्छा करनेवाले योगियों को 'ओम्' इस महामंत्रका ध्यान अवश्य करना चाहिये । २५||