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सु० प्र०
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॥१६॥ हिंसाविपंचपापानि नन्ति पंच प्रजाति च । ततस्त्याव्यानि पापानि महादातये ।।१७।। पंच पापानि लोकेस्मिन् | निंद्यानि दुष्कराणि च । विषमानि दुरन्तानि दुःखदानि विशेषतः ॥१८॥ व्यामोहमिन्द्रियाणां तु तानि कुर्वन्ति सन्ततम् ।। विकुर्वन्ति मनस्तीब' हालाइलसमं तथा ॥१६॥ सर्वेषामिन्द्रियाणा हि पापानि तापदानि च । प्रेरयन्ति हि चात्मानं कुमार्गे दुःखदेऽशुभे ॥२०॥ पापान्येव हि जीवनामन्यायविषयेऽशुभे । अत्यन्त कुरिसते करे प्रेरयन्ति बलादिह ॥२१॥ अन्यायमसदाचारं परस्वहरणादिकम् । अविवेकेन सार्धं हि तानि कुर्वन्ति संततम् ॥२२॥ पापेनैव हि जोवानां दुर्गतिः स्यादुरा- | वहा । पराभवापमानादिसंतापो जायतेऽनिशम् ॥२३॥ पापवृत्या हि जीवानां विवेकादिकसद्गुणाः। नश्यन्ति सहसा शीघ्र वात्यया च घना यथा ॥२४॥ अनादिकालतो जीवः पंचपापैश्च दुर्गतौ। भवेऽयावधिपर्यन्तं दुःखं हि सहते महन ॥२॥ धारण करनेवाले मुनिराज सब तरहके आरंभोंको त्याग कर देनेके लिये वैराग्य और ध्यानकी सिद्धि के लिये तथा | पूर्ण संयम पालन करनेके लिये महावतोंको धारण करते हैं ॥१६।। इस संसारमें हिंसादिक पांचों पाप पांचों | महावतोंका नाश करते हैं, इसलिये महाव्रतोंको दृढ़ करने के लिये हिंसादिक पांचों पापोंका त्याग कर देना चाहिये ॥१७|| इस लोक में हिंसादिक पांचों पाप निंद्य हैं, विपम है, अंतमें दःख देनेवाले हैं, अत्यन्त कठिन हैं | और विशेषकर महादुःख उत्पन्न करनेवाले हैं ॥१८॥ ये पांचों पाप इन्द्रियोंको सदा मोहित करते रहते हैं!
और मनकी गतिको हलाहल विषके समान अत्यन्त तीव्र बना देते हैं ॥१९॥ ये पांचों पाए समस्त इन्द्रियोंको | | संतप्त करते हैं और इस आत्माको दुःख देनेवाले अशुभ कुमार्गमें जाने के लिये प्रेरणा करते हैं ॥२०|| ये पांच | पाप ही इस जीवको अत्वन्त कुत्सित, क्रूर और अशुभ अन्यायके विषयमें जानके लिये जरदस्ती प्रेरणा करते | | हैं ।।२१।। ये पाप ही अविवेकपनाके माथ साथ अन्याय और परधनहरण आदि अनेक प्रकारके असदाचारोंको | | सदा कराते रहते हैं ॥२२॥ इन पापोंके ही कारण जीवोंको अशुभसे अशुभ दुर्गतियां प्राप्त होती हैं और |
तिरस्कार, अपमान आदि अनेक प्रकारके संताप सदा प्राप्त होते रहते हैं ॥२३॥ जिसप्रकार महाकायुसे बादल | * शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार इस पापाचरणके कारण इन जीवोंके विवेक आदि सद्गुण सब अकस्मात् | शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।।२४।। यह जीव अनादि कालसे लेकर आजतक इन पांचों पापोंके कारण ही अनेक | दुर्गतियोंमें महादुःख सहन करता आया है ॥२५॥ इन पांचों पापोंके ही कारण क्रोध, मान, माया और लोभ