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सु० प्र०
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कोलोभकषायास्ते जायन्ति व्रतधाततः । तैविमुह्यति चात्माऽसी न्याये धर्मविघातके ||२६|| पंचपापवशेनात्र आरम्भ विश्वघातकम् । संतनोति हि जीवोयं विवेकविकलः स्वयम् ॥२७॥ पंचपापचयेनात्मा समुद्रमवगाहते । अग्नौ पतति निःशङ्को भीमं युद्ध ं करोति सः ||२८|| पंचपापैर्हि जीवस्य बुद्धिर्धर्मा पलायते । श्रधर्मे दुःख भीमे बुद्धिः स्याच्च स्वतः सदा ॥२॥ पंचपापाहता बुद्धिः प्रेर्यमाणापि चोत्तमे । कार्य कदापि न स्यात्सा कुकार्ये स्यात्स्वतः स्वयम् ||३०|| हिंसादीनीह पापानि पंच सन्ति जिनागमे । तेषां विशेष विस्तारः स्यादनेकविकल्पतः ||३१|| त्याज्यानि तानि पापानि महाधरेण हि । जिनागमप्रमाणेन चतिना सुखलिप्सया ||३२|| श्राय हिंसा महत्पापं ततोऽसत्यप्रभाषणम् । अदत्तग्रहणं चैव तुर्यमब्रह्मसेवनम् ||३३|| अतिलोभान्ममत्वं च परद्रव्येऽभिमूर्च्छनम्। संगस्य संप्रज्ञे बाथ पंच पापानि
आदि कषायें जागृत हो जाती हैं और उन कषायोंके कारण यह जीव धर्मको घात करनेवाले अन्याय मार्ग में जाकर मोहित हो जाता है ||२६|| इन पांचों पार्थोके परवश होकर ही यह जीव विवेकको छोड़कर संसारके समस्त प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले आरंभोंको स्वयं प्रारंभ करता है ||२७|| इन पांचों पापके वश होकर ही यह आत्मा समुद्र में गिर पड़ता है, अग्निमें जल मरता है और निःशंक होकर भयानक युद्ध करता है ||२८|| इन पांच पापके ही कारण इन जीवोंकी बुद्धि धर्मसे हट जाती है और दुःख देनेवाले भयानक अधर्म सदा लिये स्वयं लग जाती है ||२९|| इन पांचों पार्षोंके कारण जो बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह उत्तम कार्योंमें प्रेरणा करनेपर भी कमी नहीं जाती और पापरूप कार्यों में अपने आप चली जाती है ॥ ३० ॥ इन जैनशास्त्रोंमें "हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह" ये पांच पाप माने गये हैं। और इनके अनेक मेद होनेके कारण इनका बहुत विस्तार हो जाता है ||३१|| इसलिये महाव्रत धारण करनेवाले यतियोंको आत्मसुखकी इच्छा करते हुए जैनशास्त्रोंकी आज्ञा के अनुसार इन समस्त पापोंका त्याग कर देना चाहिये ||३२|| सबसे पहला महापाप हिंसा है, दूसरा पाप असत्यभाषण है, तीसरा पाप बिना दिये हुए पदार्थों का ग्रहण कर लेना वा चोरी करना है, चौथा पाप असेवन वा ब्रह्मचर्य का पालन न करना है और पांचवा पाप अत्यन्त लोभसे ममत्वपरिणाम रखना, परद्रव्योंमें ममत्वपरिणाम रखना अथवा अनेक परिग्रहों का संग्रह करना है । इसप्रकार ये पांच पाए हैं ||३३ -- ३४|| अशुभ परिणामोंसे अथवा प्रमादसे जहांपर अपने वा दूसरे प्राणोंकी हिंसा होती है, उसको हिंसा
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