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प्र.
माटो
१३॥
लभते परम् ॥१८॥ तप इच्छानिरोधः स्यादिच्छात्र तु मनोभवा । तपश्चित्तस्य वश्यार्थं तपः स्याच निरीक्षकम् ॥१६॥ द्विषड्भेदं तपः ख्यातं बाह्याभ्यन्तरभेत्तः । तत्प्रत्येकस्य षड्भेदं वीतरागेण भाषितम् ॥२०॥ अनशनावमौदर्य वृत्तसंख्यारसोभनम् । विविकासनकायक्लेशौ वा याह्यतपांसि च २शा कृत्वा कालावधि चादी भावशुद्धिं विधाय च । वशीकृत्येन्द्रियं सम्यक कषायविषयं तथा ॥२२॥ त्रिधाथवा चतुर्धा हि यत्र मुक्तिविसर्जनम् । उपवासतपो ज्ञेयं नानाभेदैस्तु संयुतम् ॥२३।। एकस्मिन् दिवसे भुक्ती द्वे प्रोक्ते हि जिनागमे । एकमुक्तेः परित्याग: उपवासो मतो जिनैः ॥२४॥ एकमुक्तिं समारभ्य द्विचतुर्भुक्तिवर्जनम् । सपसोऽन्तर्गतं सर्व तस्य भेदा अनेकधा ॥२५॥ नीरसं भोजनं चाम्लं भोजनन्त्वेकवारकम् । एकभुक्त्यादयः सर्व तपोभेदा हि संति वे ॥२वा अष्टाविंशतिनारीणां द्वात्रिंशत्पुरुषस्य च । प्रासाः साधारणाः सन्ति नुत्तप्तिकारकाः सन्तु ॥२॥ सहस्रनीहिमानस्य चैको प्रासो विधीयते ।
अवश्य ही उत्तम ध्यान धारण करता है ॥१८॥ इच्छाका निरोध करना तप है तथा इच्छा मनसे उत्पन
होती है । जो इच्छाका अभाव है, वही तप है तथा तप मनको वश करनेके लिये किया जाता है ।।१९।। & उस तपके बाह्य और आभ्यंतरके भेदसे दो भेद हैं, उनमें भी प्रत्येकके छह छह मेद हैं, ऐसा भगवान
वीतराग देवने कहा है ॥२०॥ "अनशन, अवमौदर्य, वृप्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विरिक्त शय्यासन और कायक्लेश" यह छह प्रकारका बाह्य तप कहलाता है ॥२१|भावोंको शुद्धकर इंद्रियोंको वशकर और कषायविषयोंको अच्छी तरह जीतकर किसी कालकी मर्यादा तक तीन अथवा चार प्रकारके आहारका त्यागकर देना उपवास कहलाता है । इस उपवासके अनेक भेद हैं ॥२२-२३।। जिनागममें एक दिनमें दो बार भोजन बतलाया है, उसमें से एक बारके भोजनका त्याग कर देना भगवान जिनेन्द्रदेवके द्वारा उपवास कहलाता है ॥२४॥ एक बारके मोजनको लेकर दो बार वा चार बारके भोजनका त्याग आदि करना | सब तपश्चरणमें ही अन्तर्गत है, इस प्रकार इस तपश्चरणके बहुतसे भेद हो जाते हैं ॥२५॥ नीरस मोजन करना, आचाम्ल भोजन करना, एक बार भोजन करना वा एक भुक्ति करना आदि सब इस अनशन तपश्चरणके ही भेद हैं ॥२६॥ साधारण रीतिसे भूखको मिटानेवाले पुरुषके पसीस प्रास कहे जाते हैं और स्त्रीके अहाईस पास कहे जाते हैं ॥२७॥ एक हजार चावलोंका एक प्रास कहलाता है । अपनी भूखमेसे