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मु.प्र०
॥१२॥
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वचो वक्ति जीवरक्षणतत्परः ॥८॥ कटुको कर्कशां भाषा व्रते नैव स संयमी । भाषा समितिरस्य स्यान्मनोजजय- | साधिका ll कुलजातिविशुद्ध हि सुश्रावकनिकेतने । केवल प्रसिद्धयर्थ मनोनिग्रहपूर्वकम् toll त्रिदोष निर्मुक्तं वा स्वोदेश्यविवर्जितम् । आहारग्रहणं शुद्धमेषणा समितिश्च सा ॥११॥ शास्त्र कएडलुश्चैव साधनं हि सुसंस्त| रम | दृष्टिपिच्छिकया पूतमाददेच न्यसेन्मुनिः ॥१२|| सर्वत्र जीवरक्षार्थं दयाभावेन संयमी। नि पादाननामा सा जिनैः समितिरुच्यते ॥१३॥ एकान्ते निर्जने स्थाने जीवजन्तुविवर्जिते । दृष्टि पिच्छिकया पूते मलमूत्र विसर्जयेत् ॥१४॥ जीवानां रक्षणार्थ हिक्ष्यार्थ वाथ संयमी । मनोक्षजयसिद्धयर्थ चोत्सर्गसमितिर्मता ॥१॥ भावशुद्धिकराः सम्पग्मनोक्षजयसाधिकाः । प्रतरक्षणसूर्याभाः पंच समितयो मताः ॥१६॥ दृश्यते मुनिमार्गोऽत्र दयायास्सुप्रदर्शकः । महाश्रेष्ठः समित्यादिभिश्च लोकोत्तरो ननु ॥१७|| षडावश्यककर्माणि कुर्वन् योगी समावृतः । मनोक्षविजयं कृत्वा सयानं हित करनेवाले और सबका कल्याण करनेवाले हितरूप और परिमित वचन को कहता है, तथा जो संयमी।
कर्कश भाषाको कभी नहीं बोलता, वह मन और इंद्रियों को जीतनेवाली भाषासमिति कहलाती है | ॥८-९।। जो मुनि विशुद्ध कुल और जातिको धारण करनेवाले श्रावकके घर जाकर केवल व्रतोंको पालन करनेकी इच्छासे मनको वशकर तथा बत्तीस दोष और उद्दिष्ट आहारको छोड़कर शुद्ध आहार ग्रहण करता है, उसको |
एषणासमिति कहते हैं ।।१०-११॥ जो मुनि सब जगह जीवोंकी रक्षा करनेके लिये वा दया धारणकर शास्त्र, | कमंडलु आदि उपकरणोंको वा संसारको नेत्रोंसे देखकर और पीछेसे शुद्धकर रखता है, वा उठाता है; उसको
आदाननिक्षेपणसमिति कहते हैं ॥१२-१३॥ जो संयमी मुनि जीवोंकी रक्षा करनेके लिये वा दयापालन करनेके लिये अथवा मन और इन्द्रियकी विजय प्राप्त करनेके लिये जीव जन्तुओंसे रहित एकांत निर्जन | स्थानमें नेत्रोंसे देखकर और पीछेसे शुद्धकर शुद्ध भूमिमें मलमूत्रका त्याग करता है; उसको उत्सर्गसमिति कहते हैं ॥१४-१५ ये पांचों समितियां भावोंको अच्छी तरह शुद्ध करनेवाली हैं, मन और इंद्रियोंको जीतने वाली हैं और व्रतोंकी रक्षा करनेके लिये सूर्यके समान हैं ॥१६॥ संसारमें यह मुनिमार्ग दयारूप धर्मको अच्छी तरह दिखलानेवाला है, महाश्रेष्ठ है और समिति आदिके द्वारा समस्त संसारमें भेष्ठ है ॥१७॥ जो योगी छहों आवश्यक कर्माको करता है, समता धारण करता है, तथा मन और इंद्रियोंको जीतता है। वह