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१४॥
तदेकमासपश्चोनमवमौदर्यमत्र वा ॥२८॥ दिवसे चैकवारं यवमौदयं तपो मतम् । तत्र चेच्छा निरोधन्यातपो लक्षणतो मतम् ॥२६॥रध्यादिगृहभेदेन फलपुष्पादिनाथवा । भिक्षाया नियमं कृत्वा वृत्तः संख्याभिधीयते ॥३०॥ तवृत्तिपरिसंख्यानं तपः स्यात्सुखकरकम् । अनेन सपता शांप्रमक्षा वश्या भवन्ति च ॥३१॥ रताः पंचविधास्तेषु चैकादि
नम् । रसत्यागतपो ज्ञयमिन्द्रियनिग्रहक्षमम् ॥३२॥ निर्जने शुभदे स्थान प्रामादौ नगरे तथा । जिनचैत्यालये वासः शयनं क्रियते मुदा ॥३॥ शय्यासनं विविक्तं तत् सम्प्रोक्तं सुतपो मतम् । सर्वत्रेच्छानिरोधस्वात्तपा लहराता मतम् | ॥३४॥ अातापनसुयोगेन वाधाकाशादिना तथा । तजिनाज्ञाप्रमाणेन क्लेशो हि सह्यते मुदा ॥३५॥ शरीर कष्टदानेन सकष्टसहनेन वा । कायक्लेशतपस्तद्धि जिनदेवैः प्रमाणितम् ॥३६|| इच्छानिरोधतश्चात्र कायकलेशतपा मतम् । अन्तरंगतपो न स्यात्सुदाह्यतपसा विना ॥३७॥ तस्मादायतो मुख्यमादौ कार्य तदेव हि । मनावश्यं भवत्येव बाधे न तपसा एक ग्रास वा दो चार ग्रास कम आहार लेना अवमौदर्य तप कहलाता है ॥२८॥ दिनमें एक बार भोजन करना अत्रमौदर्य तप है । क्योंकि उसमें भी इच्छाका निरोध होता है और इच्छाका निरोध करना | ही नप है ॥२९॥ किसी गली वा घरोंका नियम लेकर वा पुष्प फल आदिके देखनेका नियम लेकर भिक्षाके | लिये निकलना वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप कहलाता है ॥३०॥ यह वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप बहुत ही सुख देने | वाला है। इस वृत्तिसंख्यान नामके तपसे इंद्रियां शीघ्र ही वश हो जाती हैं ।।३१॥ पांच प्रकारके रसोंमेंसे किसी एक दो | | चार वा पांचों रसोंका त्याग करना इंद्रियों का निग्रह करनेवाला रसुपरित्याग नामका तप कहलाता है ॥३२॥ किसी | | निर्जन, शुद्ध गांव, नगर, चैत्यालय आदि स्थानों में प्रसन्न होकर निवास करना वा शयन करना विविक्त
शय्यासन नामका तप कहलाता है। इस दपमें भी इच्छाका निरोध होता है, इसलिये ही इसको तप कहते हैं । | ॥३३-३४॥ भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञानुसार आतापन योग धारणकर वा अभ्राकाश योग धारणकर क्लेश-सहन करना शरीरको कष्ट देना वा स्वयं कष्ट सहन करना कायक्लेश नामका तप कहलाता है, ऐसा भगवान जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥३५.३६॥ कायक्लेश तपमें भी इच्छाका निरोध होता है, इसलिये इसको | तप कहते हैं । विना बाद्य तपके अन्तरंग तप कभी नहीं हो सकता ॥३७।। इसलिये इस मुख्य बाह्य तपको सबसे पहले धारण करना चाहिये । इस बाम तपसे यह मन अवश्य वश में हो जाता है ॥३८॥ मन वशमें होनेसे