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सु० प्र०
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श्रद्दधाति । स हि तरति भवान्धौ कर्मचक्रं चत्वा म च धरति सुधर्मं सर्वसौख्यप्रदं वा ॥५३॥
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारे आज्ञ विययध्यानरूपणो नाम सप्तदशोधिकारः ।।
निर्मलभावों से जो उसपर रुचि वा श्रद्धान करता है वह अपने समस्त कर्मोंको नाशकर इस संसार समुद्र से अवश्य पार हो जाता है तथा समस्त सुखों को देनेवाले इस श्रेष्ठ धर्मको प्राप्त हो जाता है ॥५३॥
प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकार में आज्ञाविचयधर्मध्यानको निरूपण करनेवाला यह सत्रहवां अधिकार समाप्त हुआ |
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RAKSHAK
गा०
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