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अष्टादशोऽधिकारः ।
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भवचक्रस्य भेत्तारं धर्मचक्रस्य धारकम् । दुःखचक्रस्य इंतारं वन्दे कुछ जिनेश्वरम् ||१|| भवारण्यं महाभीमे दारुणे दुःखपूरिते । श्रनादिकालतस्तत्र जीवा भ्राम्यन्ति संततम् ||२|| कर्मणा मोहनीयेन मिध्यामतवशं गताः । धर्म मत्वा हि कुर्वन्ति हिंसापापं महाधमाः ॥ ॥ तेन पापेन घोरेण जन्ममृत्युकदर्शिताः । हा हा दीना वराकास्ते विना धर्मेण पीडिताः । ||४|| इमे कथं हि गृहीयुः सद्धर्म जिनभाषितम् । मिथ्यात्वं वा कथं तेषां नश्येत्खलु कुकर्मकृत् ||५|| अन्यचिन्तां निरुध्यैकामेपापस्य चिन्तनम् | अपायविचयं ध्यानं सर्वजीवसुखावहम् ||३|| सर्व ध्यानेषु मुख्यं हि ध्यानमपायसंज्ञकम् । अपाय
जो संसारकै समूहको नाश करनेवाले हैं, धर्मके समूहको धारण करनेवाले हैं और दुःख के समूहको नाश करनेवाले हैं ऐसे भगवान कुंथुनाथको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ महादारुण दुःखोंसे भरे हुए और महाभयानक संसाररूपी नमें ये जीव अनादिकालसे निरंतर परिभ्रमण कर रहे हैं ||२|| ये जीव मोहनीय कर्मके उदयसे मिधात्वके वशीभूत हो रहे हैं और इसीलिये वे नीच धर्म समझकर हिंसारूप महापाप उत्पन्न करते रहते हैं ॥३॥ उसी घोर पापके कारण अनेक जन्म-मृत्युओंसे दुःखी हुए वे दीन और महादुखी जीव बिना धर्मके पीड़ित हो रहे हैं ||४|| ऐसे ये जीव भगवान जिनेन्द्रदेव के कहे हुए श्रेष्ठ धर्मको कैसे धारण करेंगे ? अथवा अशुभ कर्म उत्पन्न करनेवाला मिथ्यात्व कर्म उनका कब नष्ट होगा ? इसप्रकार अन्य चिन्तवनको रोककर एकाग्र मनसे कम के नाश होनेका चिन्तन करना अपायविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है । यह अपायविचय नामका धर्मध्यान सब जीवोंको सुख देनेवाला है और सब ध्यानोंमें मुख्य है। इसी अपायविचय धर्मध्यान से योगी पुरुष सब
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