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सु० प्र०
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羊節者:おおおおおおお
||१२|| तावद्वन्धो अमी यावद्धमावे हि शुद्धधीः । तव सम्यद्यते ध्यानं ध्यानात्कर्मक्षयो भवेत् ॥ १२६ ॥ यत्र मोहित तत्रैवाहंकारोती दुर्धरः । तेन दुर्घटसंसारः पापबंधोस्ति संततम् ॥ १२७ ॥ अन एव हि संसारः भ्रमाभाषः शिवो मतः । तस्माद्धमं निराकृत्य चान्त ष्टया निर्ज भज || १२८|| स्वस्वरूपं समासाद्य चेत्थं शुद्धविचारतः स्थानय त्वं दृढं शीघं स्वात्मानं स्वात्मनि स्थिरम् ॥ १२६ ॥ स्वानुभूत्या विचारेण ध्यानेन सोपयोगतः । अन्तरात्मा निजात्मानं स्थापयति परामनि ॥ विरभियात्वरूपात वर वर निज चित्चे शुद्धसम्यक्त्वमित्थम । चर चर जिनमार्ग श्रीजिनाज्ञाप्रमारणम्, कुरु कुरु परमात्मानं सुबह अमन् ॥ १३१ ॥
॥ इति सुध्यानालंकारे बहिरात्मान्तरात्मनोर्धर्यानं नाम तृतीयोधिकार: ॥
कर लेता है || १२५ || इस जीवको जबतक भ्रम रहता है तबतक कर्मका बन्ध होता रहता है और जब भ्रमका नाश हो जाता है तब बुद्धि अत्यन्त शुद्ध हो जाती है तथा शुद्ध बुद्धिसे ध्यान की प्राप्ति हो जाती है और ध्यानसे कर्मों का नाश हो जाता है ।। १२६ । जहाँपर भ्रम होता है वहीं पर अत्यन्त दुर्द्धर अहंकार हो जाता है । तथा अहंकार हो जाने से घोर संसारकी वृद्धि हो जाती है और निरंतर पापका बन्ध होता रहता है ॥ १२७ ॥ इस भ्रमको ही संसार ममझना चाहिये और भ्रम अभावको ही मोक्ष समझना चाहिये। इसलिये
नका त्याग कर १२८ ॥ इसप्रकारके शुद्ध विचारोंसे अपने स्वरूपको प्राप्त आत्मा में दृढ़ता के साथ शीघ्र स्थापन कर ।। १२९ ।। यह
अन्तरंग से अपने आत्माका ध्यान करना चाहिये ॥ होकर हे आत्मन् ! तू अपने आत्माको अपने ही अन्तरात्मा अपनी स्वानुभूतिसे, अपने विचारोंसे, अपने ध्यानसे और अपने उपयोग से अपने आत्माको परमात्मा में स्थापन कर लेता है || १३०|| हे आत्मन् । गाढ मिथ्यात्वरूप मोहसे तू विरक्त हो, विरक्त हो और इस प्रकार अपने हृदय में शुद्ध सम्यग्दर्शनको धारण कर | भगवान जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के अनुसार जिनमार्गमें चल और श्रेष्ठ धर्ममय परमात्माको स्वीकार कर || १३१ ॥
इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्म सागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकार में बहिरात्मा और अन्तरात्माको निरूपण करनेवाला यह तीसरा अधिकार समाप्त हुआ ।
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भा०
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