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सन्निभम् ॥३७॥ अमूर्तानां हि सिद्धानासमूतो एव तद्गुणाः । तथापि च गुणास्तेषां चिन्त्यते मनमात्र वा ॥३८॥ गुणावलम्बनं कृत्वा शनैः शनैर्विचिन्तयेत् । कारयच मनस्तत्र तन्मयत्वेन चात्मनि ॥३६|| अनन्यमनसा ध्यायेत्मिद्धशुद्धगुणान् स्वयम् । जायते हि ततो ध्यानात्स्वात्मनि स्त्रात्मसंस्थितिः ॥४01! रूपातीतमुध्यानेन महामोहः प्रणश्यते । श्रात्मा विशुद्धता याति शुद्धस्फटिकवत्सदा ॥४१॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन सुध्यायन्नित्यरूपकम् । घानन्य शरणी भूत्वा सिद्ध शुद्ध' विचिन्तये ।।४।। विगतसकलरूपं सर्वकारिनाशास्परमसमयसारं शुद्धबुद्ध विशुद्धम् । परपरणतिहीनं चिन्मयं ज्योतिरूपं स्मति जपति भक्तया रं सुधर्मो मुनीन्द्रः ॥४॥
इति सुधर्मध्यानप्रदोपाल का रूपातीतध्यानवर्षमो नाम चतुर्विशतितमोऽधिकारः । आत्मगुणोंसे सर्वथा अभिन्न है, लोक आलोकको प्रकाशित करनेवाले हैं, आत्मगुणमय है, दिव्य है और | शुद्ध सुवर्णके समान है; ऐसे सिद्ध भगवानको सदा रिंक करते रहना चाहिये ॥३४-३७॥ यद्यपि अमून । सिद्धोंके गुण भी अमृत ही होते हैं, तथापि मनके द्वारा उनका चितवन किया जाता है ॥३८॥ सिद्धोंके उन || गुणोंका अवलम्बन लेकर धीरे धीरे उन सिदोंका ध्यान करना चाहिये और तन्मय होकर आत्मामें अपने मनको निश्चल करना चाहिये । ३९॥ सिद्धोंके शुद्ध गुणोंको एकाग्र मनसे चितवन करना चाहिये । इन गुणों के चितवन करनेसे अपने आत्माकी स्थिति अपने ही आत्मामें स्थिर हो जाती है ॥४०॥ इस रूपातीत | ध्यानसे महामोह नष्ट हो जाता है और शुद्ध स्फटिकके समान यह आत्मा सदाके लिये अत्यंत विशुद्ध हो जाता है । इसलिये सब तरहके प्रयत्न करके और अनन्य शरण होकर अर्थात् अन्य सबका शरण छोड़कर केवल सिद्धोंके ही शरणमें आकर रूपरहित शुद्ध और सदा रहनेवाले सिद्धीका ध्यान करना चाहिये ॥४१४२।। ममस्त कर्मोके नाश होनेसे जो सब तरह के रूप रस गंध स्पशसे रहित है. परम समयमारस्वरूप हैं, शुद्ध हैं, बुद्ध हैं, विशुद्ध हैं, पररूप परिणतिसे सर्वथा रहिन हैं, चेतन्यमय हैं और ज्योतिःस्वरूप हैं; ऐसे भगवान् सिद्ध परमेष्ठीको यह मुनिराज सुधर्मसागर भक्तिपूर्वक सदा स्मरण करता है और सदा जप करता है ११४३||
इस प्रकार मुनिराज श्रीसूधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदोपालद्वारमें रूपातीत
ध्यानको वर्णन करनेवाला यह चौबीसा अधिकार समाप्त हुआ